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________________ सम्यक् नियतिस्वल्पमीमांसा २८५ कारण परम्परामें जिन स्वभाव, नियति (निश्चय ) बाहा निमित्त, काल और पुरुषार्थ इन पांच कारणोंका निर्देश किया जाता है उनका समुच्चय होने पर कार्य नियमसे होता है। उनका समुच्चय हो और कार्य न हो यह भी नहीं है और कार्य हो और उनका समुच्चय न हो यह भी नहीं है। यतः उत्पाद-व्यरूप पर्याय प्रति समय होती है अतः उनका समुच्चय प्रति समय होता रहता है। पहले जो हम क्रियाबादियोंके १८० भेद बतला याये हैं। उनमेंसे एकान्त नियतिवादियोंके ३६ भेद हैं और इसी प्रकार एकान्त पुरुषार्थवादी आदि प्रत्येकके ३६, ३६ भेद हैं । जो इस एकान्त नियतिके अनुसार कार्योंकी उत्पत्ति मानते हैं उन्होंने कार्योंके प्रति अन्य बाह्याभ्यन्तर कारणोंका निषेध किया और इसी प्रकार जो केवल बाह्य निमित्त आदि एक एकसे कार्यों की उत्पत्ति मानते हैं उन्होंने भी कार्योंके प्रति अन्य कारणोंका निषेष किया, इसलिये ये मिथ्या एकान्ती है। किन्तु जो प्रत्येक कार्यमें इन पाँचोंके समवायको स्वीकार करते हैं वे सम्यक अनेकान्ती हैं। प्रयोजन विशेषसे एक-एक कारणके द्वारा कार्यका कथन करना अन्य बात है। परन्तु प्रत्येक कार्यमें होता है इन पांचोंका समवाय ही। इतना अवश्य है कि पुरुषार्थका विचार केवल जीवोंको अपेक्षा ही किया जाता है क्योकि अजीवोंमे पुरुषार्थका सर्वथा अभाव है। इसलिये अजीवोंके सभी कार्य विस्रसा ही स्वीकार किये गये है। दूसरे इह चेष्टा द्वीन्द्रियादि जोवोमे ही देखी जाती है, इसलिये उनके सभी कार्यों में गौण-मुख्य भावसे पुरुषार्थको भी स्वीकार किया है। प्रायोगिक संज्ञा भी इन्हींकी है। ४. उपसंहार ___इस प्रकार हम देखते है कि जहां एक ओर जैनधर्ममें एकान्त नियतिवादका निषेध किया गया है वहाँ दूसरी ओर सम्यक् नियतिको स्थान भी मिला हुआ है, इसलिए इसे स्थान देनेसे हमारे पुरुषार्थको हानि होती है और हमारे समस्त कार्य यन्त्रके समान सुनिश्चित हो जाते हैं यह कहकर सम्यक नियतिका निषेष करना उचित नहीं है। यहाँ सबसे पहले यह विचार करना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्तिका पुरुषार्थ क्या है ? हम इसका लो निर्णय करें नहीं और पुरुषार्थकी हानि बतला, क्या इसे उचित कहा जा सकता है ? वस्तुतः प्रत्येक चेतन द्रव्य अपनेअपने कार्यके प्रति प्रतिसमय पुरुषार्थ कर रहा है, क्योंकि वह अपने पुरुषार्थसे प्रत्येक समयमें पुराने कार्यका ध्वंस कर नये कार्यका निर्माण
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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