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________________ २६४ जेनतत्वमीमांसा बात तो स्पष्ट है कि प्रति समय इस प्रकार जो कर्मनिषेकोंका यथासम्भव उदीरणा आदिरूपसे बटवारा होता रहता है उसमें यथासम्भव प्रति समयके जीवके यद्यपि संक्लेशरूप या विशुद्धिरूप परिणाम निमित्त होते हैं इसमें सन्देह नहीं । परन्तु वह अपने हस्त पाद आदिका व्यापारकर बलात् उनमें से किन्हींको उदीरित होनेके लिए, किन्हींको उत्कर्षित होनेके लिए, किन्हीको अपकर्षित होनेके लिए और किन्हींको सक्रमित होनेके लिए धकेलता रहता हो सो ऐसी बात तो है नहीं। अतएव निष्कर्षरूपमे यही फलित होता है कि जिस समय जिन कर्मपरमाणुओंकी जिसरूपमें होनेकी योग्यता होती है वे कर्मपरमाणु उस समय हुए जीवके परिणामोंको निमित्त करके | उसरूप स्वयं परिणम जाते है । कर्मसाहित्यमे अपकर्षणके लिए तो एकमात्र यह नियम है कि उदयाबलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण नही होता । जो कर्मपरमाणु उदयावलिके बाहर अवस्थित हैं उनका वैसी योग्यता होनेपर अपकर्षण हो सकता है । परन्तु उत्कर्षण उदयावलिके बाहर स्थित सभी कर्मपरमाणुओका हो सकता हो ऐसा नहीं है । उत्कर्षण होनेके लिए नियम बहुत हैं और अपवाद भी बहुत है । परन्तु सक्षेप में एक यही नियम किया जा सकता है कि जिन परमाणुओंकी उत्कर्षणके योग्य शक्तिस्थिति शेष है और वे उत्कर्षणके योग्य कालमे स्थित है तथा उस जातिका प्रकृतिका बन्ध हो रहा हो तो उन्हींका उत्कर्षण हो सकता है, अन्यका नहीं । यदि हम इन नियमोको ध्यानमे लेकर विचार करें तो भी यही बात फलित होती है कि जो कर्मपरमाणु उत्कर्षणके योग्य उक्त योग्यता सम्पन्न हैं वे ही जीव परिणामोंको निमित्त करके उत्कर्षित होते हैं । उसमे भी वे सब परमाणु उत्कर्षित होते हों ऐसा भी नहीं है । किन्तु जिनमें विवक्षित समयमें उत्कर्षित होनेकी योग्यता होती है वे विवक्षित समय में उत्कर्षित होते है और जिनमें द्वितीयादि समयोंमे उत्कर्षित होनेकी योग्यता होती है वे द्वितीयादि समयोमे उत्कर्षित होते है । और जिन कर्मपरमाणुओमे उत्कर्षित होने की योग्यता नही होती वे उत्कर्षित नही होते । यही नियम अपकर्षण आदिके लिए भी जान लेना चाहिए । यह कर्मों और वित्रसोपचयोंका विवक्षित समय में विवक्षित कार्यरूप होनेका क्रम है । यदि हम कर्मप्रक्रियामे निहित इस रहस्यको ठीक तरहसे जान लें तो हमें अकालमरण और अकालपाक आदिके कथनका भी 1
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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