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________________ क्रम नियमितपर्यायमीमांसा २६३ ज्ञानावरण आदि कर्मोके अवान्तर भेदोंका उसीके अवान्तर भेदोंमें ही संक्रमण होता है यह जो कर्मसिद्धान्तका नियम है उससे भी उक्त कथनकी पुष्टि होती है । यहाँ यह शंका होती है कि यदि यह बात है तो दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका परस्पर तथा चार आयुओंका परस्पर संक्रमण क्यों नहीं होता ? परन्तु यह शंका इसलिए उपयुक्त नहीं है, क्योंकि अन्य कर्मों के समान इन कर्मोंको बर्गणाऐं भी अलग-अलग होनी चाहिए, इसलिए उनका परस्पर संक्रमण नहीं होता । यहाँ निश्चय उपादानकी विशेषताको समझनेके लिए यह बात और ध्यान देने योग्य है कि प्रति समय जितना विस्त्रसोपचय होता है जो कि सर्वदा आत्मप्रदेशोंके साथ एकक्षेत्रावगाहो रहता है वह सबका सब एक साथ कर्मरूप परिणत नहीं होता। ऐसी अवस्थामें यह विस्रसोपचय इस समय कर्मरूप परिणत हो और यह कर्मरूप परिणत न हो यह विभाग कौन करता है ? योग द्वारा तो यह विभाग हो नही सकता, क्योंकि विस्र सोपचयके ऐसे विभाग में बाह्य निमित्त होना उसका कार्य नहीं है । जो विस्रसोपचय उस समय कर्मपर्यायरूपसे परिणत होनेवाले हों उनके बन्ध में बाह्य निमित्त होना मात्र इतना योगका कार्य है। इस प्रकार कर्मशास्त्र - में बन्ध, सक्रमण और विस्रसोपचयके सम्बन्ध में स्वीकार की गई इन व्यवस्थाओं पर दृष्टिपात करनेसे यही विदित होता है कि कार्यमें निश्चय उपादान ही नियामक है और जब निश्चय उपादानके कार्यरूप होने- ! का स्वकाल होता है तभी वह अन्य द्रव्यको निमित्त कर कार्यरूप परि । णत होता है । कर्म साहित्य बद्ध कर्मकी जो उदीरणा, उत्कर्षण और अपकर्षण आदि अवस्थाऐं बतलाई हैं उनपर सूक्ष्मतासे ध्यान देने पर भी उक्त व्यवस्था ही फलित होती है । उदयकालको प्राप्त हुए पूरे निषेकका अभाव हो जाता है यह ठीक है । परन्तु उदीरणा, उत्कर्षण और अपकर्षणमे ऐसा न होकर प्रति समय कुछ परमाणुओंकी विवक्षित निषेकमेंसे उदीरणा होती है, कुछका उत्कर्षण होता हैं, कुछका अपकर्षण होता है और कुछका संक्रमण होता है । तथा उसी निषेकमें कुछ परमाणु ऐसे भी हो सकते हैं जो उपशमरूप रहते हैं, कुछ निधत्तिरूप और कुछ निकाचितरूप भी रहते हैं । सो क्यों ? निषेक एक है। उसमें ये सब परमाणु अवस्थित हैं । फिर उनका प्रत्येक समयमें यह विभाग कौन करता है कि इस समय यह उदीरणारूप होवे और यह उत्कर्षणरूप होवे आदि । यह
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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