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________________ क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा २६५ रहस्य समझमें बानेमें देर न लगे । कर्मबन्धके समय जिन कर्मपरमाणुओंमें जितनी व्यक्तिस्थिति पड़नेकी योग्यता होती है उस समय उनमें उसनी व्यक्तिस्थिति पड़ती है और शेष शक्तिस्थिति रही आती है इसमें सन्देह । नहीं। परन्तु उन कर्मपरमाणुओंको अपनी व्यक्तिस्थिति या शकिस्थिति के काल तक कर्मरूप नियमसे रहना ही चाहिये और यदि वे उतने काल तक कर्मरूप नहीं रहते हैं तो उसका कारण वे स्वयं कथमपि नहीं हैं, अन्य ही है यह नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर एक तो कारणमें कार्य कथंचित् सत्तारूपसे अवस्थित रहता है इस सिदान्तका / अपलाप होता है। दूसरे कौन किसका समर्थ उपादान है इसका कोई नियम न रहनेसे जड़-चेतनका भेद न रहकर अनियमसे कार्यकी उत्पत्ति प्राप्त होती है। इसलिये जब निश्चय उपादानकी अपेक्षा कथन किया जाता है तब प्रत्येक कार्य स्वकालमें ही होता है. यही सिद्धान्त स्थिर होता है। इस दृष्टिसे अकालमरण और अकालपाक जैसे वस्तुको परमार्थसे कोई स्थान नहीं मिलता। और जब उनका अतर्कितोपस्थित या प्रयत्नोपस्थित बाह्य निमित्तोंकी अपेक्षा कथन किया जाता है तब वे ही कार्य अकालमरण या अकालपाक जैसे शब्दों द्वारा भी पुकारे जाते हैं। यह । निश्चय और व्यवहारके आलम्बनसे व्याख्यान करनेकी विशेषता है। इससे वस्तुस्वरूप दो प्रकारका हो जाता हो ऐसा नहीं है। अन्यथा | अकालमरणके समान अकाल जन्मको भी स्वीकार करना पड़ेगा और ऐसामानने पर जन्मके अनुकूल नियत स्थान आदिकी व्यवस्था ही भंग हो जायगी। यह तो हम मानते है कि वर्तमानमें लोकिक विज्ञानके नये-नये प्रयोग दृष्टिगोचर हो रहे है । संहारक अस्त्रोंकी तीव्रता भी हम स्वीकार करते हैं। आजके मानवकी आकांक्षा और प्रयत्न धरती और नक्षत्रलोकको एक करने की है यह भी हमें ज्ञात है पर इससे प्रत्येक कार्य अपने-अपने निश्चय उपादानके अनुसार स्वकालके प्राप्त होनेपर ही होता है इस सिद्धान्तका कहाँ व्याघात होता है और इस सिद्धान्तके स्वीकार कर लेनेसे उपदेशादिको व्यर्थता भी कहाँ प्रमाणित होती है ? सब बाह्य-आभ्यन्तर। कार्य-कारणपद्धतिसे अपने-अपने कालमें हो रहे हैं और होते रहेंगे। । ____ लोकमें तत्त्वमार्गके उपदेष्टा और मोक्षमार्गके प्रवर्तन कर्ता बड़े-बड़े तीर्थकर हो गये हैं और आगे भी होंगे, पर उनके उपदेशोंसे कितने प्राणी लाभान्वित हुए ? जिन्होंने मासलभव्यताके परिपाकका स्वकाल आनेपर
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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