SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा . २३७ कि वह अपने उपयोग स्वभावको लक्ष्य में लेकर स्वयं तत्स्वरूप होकर नहीं परिणमता 1 इन दो अवस्थाओंको छोड़कर जो परंप्रत्यय शब्दका प्रयोग है वह मात्र प्रत्येक द्रव्यको एक समयकी पर्यायसे दूसरे समयको पर्यायको भिन्न रूपसे सूचन करनेके लिए ही है और जिसके द्वारा इसका सूचन होता है उसे निमित्त कहा गया है। देखो सर्वार्थसिद्धि अ०५, सूत्र ७की टीकाका अन्तिम भाग । शंका-जीवके विषय और कषायको बन्धका हेतु बतलाते समय पंचेन्द्रियोंके विषयोंको भी बन्धका हेतु कहा गया है सो क्या बात है ? समाधान - पंचेन्द्रियोंके विषयोंमें रागबुद्धि होनेसे ही उन्हे बन्धका हेतु कहा गया है। वास्तवमें बन्धका हेतु तो राग ही है। पंचेन्द्रियके विषय नहीं। जहाँ भी इन्हें बन्धका हेतु कहा गया है वहाँ जीवके बन्धका हेतु राग और रागका बाह्य हेतु पचेन्द्रियके विषय यह समझ कर ही कहा गया है । इसीलिये समयसार और तत्त्वार्थसूत्र आदि परमागममें जीवके बन्धके हेतुओंकी परिगणना करते समय मात्र मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगको ही बन्धका हेतु कहा है, पुद्गलादि अन्य पदार्थोंको नहीं। प्रकृतमे वस्तुस्थिति यह है कि पुद्गलकी तो विवक्षित पर्याय ही उसके बन्धकी हेत है और जीवकी मोहादिरूप परिणति हो उसके बन्धकी हेतु है, इसलिए ये दोनों द्रव्य स्वयं ही बन्ध अवस्थाको प्राप्त होते हैं यह सिद्ध होता है। ___ शंका-आगममें जो यह कहा गया है कि जीवके अज्ञानादिको निमित्त कर कार्मणवर्गणाएँ कर्मरूप परिणम जाती हैं और उनके उदयको निमित्त कर जीव अज्ञानादिरूप परिणमता रहता है सो क्या बात है ? ___ समाधान-यह मसद्भूत व्यवहार नयका कथन है । वह यथासम्भव बाह्य व्याप्तिको देखकर ही किया गया है, क्योंकि उपादान-उपादेयरूप कार्यकारणमें जहां क्रमभावी अविनाभावको मुख्यता है वहाँ बाह्य निमित्त । नैमित्तिक सम्बन्धरूप कार्यकारणमें कालप्रत्यासत्तिकी मुख्यता है वैसे। परमार्थसे सभी कार्य होते तो हैं परनिरपेक्ष हो । उन्हें परसापेक्ष असद्भूतव्यवहारनयसे ही कहा जाता है। श्री जयधवला पुस्तक ७ में अल्पबहुत्वके कथनके प्रसंगसे ये वचन आये हैं
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy