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________________ २३८ जैनतत्वमीमासा अणताणुमाणे जहण्णपदेससंतकम्मममखेजगणं । कोहे जहण्णपदेससंतकम्म विमेसाहियं । पयडिविसेसादो। मायाए जहण्णपदेससतकम्मं विससाहियं । विस्समादो । लोहे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । बझत्यकारणणिरवेक्खो वत्थुपरिणामो । पृ० ११७ यहाँ इष्ट प्रयोजनकी दृष्टिसे लिये गये हेतुवचन जयधवला टीकाके हैं, शेष सब चणिसूत्र हैं। उससे अनन्तानबन्धी मानमें जघन्य प्रदेश सत्कर्म असख्यातगुणा है। उससे क्रोधमें जघन्य प्रदेश सत्कर्म विशेष अधिक है। प्रकृतिविशेषके कारण ऐसा है। उससे मायामें जघन्य प्रदेश सत्कर्म विशेष अधिक है। क्योंकि स्वभावसे ही ऐसा है। उससे लोभमें जघन्य प्रदेश सत्कर्म विशेष अधिक है। ये सब सूत्र सुगम हैं, क्योंकि वस्तुका परिणाम बाह्य कारणनिरपेक्ष ही होता है। देखो, बन्धके समय उक्त प्रकृतियोंके अल्पबहुत्वकी स्वभावसे ऐसी व्यवस्था बन जाती है। उन प्रकृत्तियोंमें यथासम्भव उत्कर्षण, अपकर्षण या संक्रमणके होनेपर भी इस अल्पबहुत्वमें अन्तर नहीं पड़ता। कोई कहे कि जो कर्मबन्धके हेतु मिथ्यात्वादि कहे हैं उनके कारण ऐसा होता होगा? इस पर आचार्य कहते हैं कि भाई! ऐसा नहीं है। इस रूपसे उन प्रकृतियोंका होना विनसा है। ऐसा होनेमें बाह्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और जीवके परिणामविशेष इनका कोई हाथ नहीं है । श्री धवलाजी पु० ६ पृ० १६३-१६४ में जो नपुंसकवेद आदि कतिपय प्रकत्तियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके प्रमाणका निर्देश किया है। इसपर किन्हीं प्रकृतियोंका कम और किन्हींका अधिक उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्यों होता है । इसी शंकाका समाधान करते हुए आचार्य वीरसेन लिखते हैं कुदो ? पयडिविसेमादो। ण च सन्त्राई कज्जाइ एयतेणबज्झत्थमवेक्खिय चे उप्पज्जंति, सालिबीजादो जवंकुरम्स वि उप्पत्तिपसंगा। ण च नारिसाई दवाई तिमु वि कालेसु कहि पि अस्थि, जेसि वलेण मालिबीजस्स जवंकुरुप्पायणमत्ती होज्ज, अणवत्थापसगादो । तम्म कम्हि वि अतरंगकारणादो चेव कज्जुप्पत्ती होदि ति णिच्छओ काययो । १० १६४ । क्योंकि प्रकृति विशेष होनेसे इस सूत्रमें कही गई प्रकृतियोंका उक्त प्रकारसे उत्कष्ट स्थितिबन्ध होता है। सभी कार्य एकान्तसे बाह्य कारणकी अपेक्षासे नही उत्पन्न होते है, अन्यथा शालिधान्यके बीजसे यवांकुरकी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु इस प्रकारके द्रव्य तीनो ही कालोंमें किसो भी क्षेत्रमें नहीं पाये जाते जिनके बलसे शालि
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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