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________________ २२० जैनतत्त्वमीमांसा अशक्य नहीं है। मनुष्य उसके बलसे हवा, पानी, अन्तरीक्ष और नक्षत्रलोक इन सब पर विजय प्राप्त करता हुआ चला जा रहा है। और भी ऐसी रेल दुर्घटना आदि आकस्मिक रूपसे हमें देखनेको मिलती रहती हैं जिनसे यह अनुमान सहज ही किया जा सकता है कि सब कार्योंका नियत्त क्रमसे होना मानना कोरी कल्पना है, बुद्धि बाह्य होनेसे वह स्वीकार नहीं की जा सकती। ४ आगमिक प्रमाणोंका कल्पित उपयोग ये कुछ लौकिक उदाहरणोंका कल्पित उपयोग है। शास्त्रीय प्रमाणोंको उपस्थित करते हुए उनका कहना है कि (१) यदि सब द्रव्यों की पर्यायें क्रमनियमित ही हैं तो देव, नारकी, भोगभूमिज मनुष्य-तिथंच तथा चरम शरीरी मनुष्योंकी आयुको मात्र अपनवत्ये कहना नहीं बनता, क्योंकि जब सब जीवोंका जन्म-मरण तथा अन्य कार्यक्रम क्रमनियमित हैं तब किसी नियत आयुको और उनके अन्य कार्योंको अनपवर्त्य नहीं कहना चाहिये। यतः आगममें विषभक्षण, रक्तक्षय, तीव्र वेदनाका होना और भय आदि बाह्य कारणोंका योग होनेपर कर्मभूमिज मनुष्यों और तियंचोंकी भुज्यमान आयु पूरी हुए विना बीच में ही मरण होता हुआ आगम स्वीकार करता है, इसीलिये ही शास्त्रकारोंने इन बाह्य साधनोंके आधारपर अकालमरणका निर्देश किया है । यही बात तत्वार्थश्लोकवार्तिकमें भी कही है अथोपपादिकादीना नापवर्त्य कदाचन । स्वोपासमायुरोदृक्षादृष्टसामर्थ्यसंगते. ॥ १ ॥ सामर्थ्यतस्ततोऽन्येषामपवयं विषादिभिः । सिद्ध चिकित्सितादीनामन्यथा निष्फलत्वतः ।। २ ।। औपपादिक आदि जीवोंकी अपनी बन्धकालमें प्राप्त आयुका कभी भी अपवर्तन नहीं होता, क्योंकि उनका अदृष्ट ही ऐसा होता है। अतः सामर्थ्यसे ज्ञात होता है कि उक्त जीवोंके सिवाय अन्य जितने जीव हैं उनकी विष भक्षण आदिके द्वारा आयुका अपवर्तन होना सम्भव है यह सिद्ध होता है। यदि ऐसा न माना जाय तो चिकित्सा आदिका किया जाना निष्फल हो जायगा। अतः सब पर्यायें क्रमनियमित ही होती हैं यह एकान्त नियम नहीं है यह मानना ही उपयुक्त है।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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