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________________ कर्तृ-कर्ममीमांसा स्वीकार किया गया है। श्री समयसारको आत्मख्याति टीकामें इसको स्वीकार करते हुए क्या कहा गया है, देखिये- . . कुलालः करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति तावत् व्यवहारः । कुलाल कलशको करता है और उसे अनुभवता है यह लौकिक जनोंका अनादिरूढ चला आ रहा लोकिक व्यवहार है। जैनागममें इस प्रकारके व्यवहारको क्यों स्वीकार किया गया है इसका कारण यह है कि बाह्य व्याप्ति देखकर काल प्रत्यासत्तिवश विवक्षित कार्यसे भिन्न सविकल्प अज्ञानी प्रयत्नशील पुरुषादिमें उस कार्यकी अपेक्षा लोकमें निमित्त कर्ता व्यवहारको आगममें भी स्वीकार कर लिया गया है। वस्तुस्वरूपकी अपेक्षा वह जैन दर्शन नहीं है। समयसार गाथा ८४, ९७, ९८, १०० और १०७ आदिमें इस तथ्य को स्वीकार करके भी परमार्थसे उसका निषेध ही किया गया है। साथ ही यह भी बतलाया गया है कि परमार्थसे सभी द्रव्य अन्य निरपेक्ष होकर स्वतन्त्ररूपसे अपना-अपना कार्य करने में समर्थ हैं। इस विषय को आचार्य अमृतचन्द्रदेवने १०० वी गाथा की टीकामें विशद रूपसे स्पष्ट किया है । उसका आशय यह है १. ज्ञायक स्वरूप आत्मा तो व्याप्य-व्यापकपनेसे पर द्रव्योंकी क्रियाका कर्ता त्रिकालमे नहीं है। २. निमित्त-नैमित्तिक भावसे भी वह पर द्रव्योंकी क्रियाका कर्ता नहीं हो सकता, क्योकि इस प्रकार तो उसके नित्य होनेसे सदा ही उसे निमित्तरूपसे कर्तृत्वका प्रसंग प्राप्त होता है । ३. तब फिर क्या स्थिति है ऐसी शका होने पर उसका समाधान करते हए वे कहते हैं-अज्ञानीके योग और विकल्पको पर द्रव्योंकी क्रियाका निमित्तपनेसे कर्ता स्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि अज्ञान की भूमिकामें मैने यह किया, करता हूँ या करूँगा इस प्रकारके अहंभाव से ग्रसित्त मन-वचन-कायपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाला अज्ञानी जीव पर द्रव्योंके कार्योका निमित्तपनेसे कर्ता भले ही मान लिया जाय, परन्तु | ज्ञानी जीव तो रागमें एकत्व बुद्धि छूट जानेके कारण मात्र निश्चय सम्यग्दर्शनादिरूप ज्ञानभावका ही कर्ता है, अज्ञानरूप रागादि विकल्पों और योगका कर्ता त्रिकालमें नहीं है। शंका-सर्वार्थसिद्धि अ० ५ सू० १९ में भाव वचनरूप सामार्थ्यसे युक्त क्रियावान् आत्माको द्रव्य वचनोंकी उत्पत्तिमें प्रेरक कारण कहा
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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