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________________ जैनतत्वमीमांसा है। इसी प्रकार सू० १७ में धर्म बोर अधर्म द्रव्यको अप्रेरक कहकर संसारी जीवों और पुद्गलोंको प्रेरक स्वीकार किया गया है। इससे मालूम पड़ता है कि उदासीन बाह्य निमित्तोंसे भिन्न प्रेरक बाह्य निमित्त होते हैं। साथ ही इससे यह भी सिद्ध होता है कि जो बाह्य द्रव्य प्रेरक निमित्त कारण होता है उसीमें निमित्त कर्ता व्यवहार होता है। इसलिये उक्त जीव और पुद्गल दोनोंको निमित्त कर्ता मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिये ? समाधान–पूर्वोक्त दोनों उल्लेखोंमें प्रथम उल्लेख तो उक्त प्रकार के जीवोंको ध्यानमें रखकर ही किया गया है। और दूसरे उल्लेखमें धर्मादिक द्रव्योंको भले ही अप्रेरक कहा हो। पर इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि अन्य द्रव्योंके कार्योंमें पुद्गल भी निमित्त कर्ता होता है । प्रत्युत प्रथम उल्लेखसे तो यही सिद्ध होता है कि अज्ञानीके विकल्प और योगमें ही घटादि कार्योंमें लौकिक जनोंकी अपेक्षा निमित्त कर्ताका व्यवहार स्वीकार किया जा सकता है । समयसारके कलश काव्यमें कहा भी है माकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुष साख्या इवाप्याईता. । कर्तारं कलयन्तु त किल सदा भेदावबोधादध । ऊर्ध्वं तूबतबोधधामनियत प्रत्यक्षमेन स्वयम् । पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञाताररमेक स्वयम् ।।२०५६ आर्हत जन भी सांख्योंके समान आत्माको अकर्ता मत मानो, भेदज्ञानके पूर्व उसे विकल्पपनेकी अपेक्षा नियमसे सदा काल कर्ता मानो। किन्तु जो अपने भेद ज्ञानरूपी मन्दिर में स्थित है, वहाँसे लेकर उसे प्रत्यक्ष स्वय परके कर्तृत्वके विकल्पसे मुक्त अचल एक ज्ञाता ही देखो ॥२०५।। इससे सिद्ध होता है कि उसी आत्मामे लोकरूढिवश निमित्त कर्तापने का व्यवहार करना जिनागमको इष्ट है जो अज्ञानी होकर योग और विकल्पवान् है। शंका-समयसार खासकर अध्यात्म ग्रन्थ है, इसलिये उसमे आत्माको लक्ष्य कर ही विचार किया गया है। परन्तु ऐसे भी आगमप्रमाण मिलते है जिनके आधारसे पुद्गलोंको निमित्त कर्ता स्वीकार करनेमें आगमसे बाधा नही आती । उदाहरणार्थ पंचास्तिकाय गाथा ८८ में गतिशील वायुको ध्वजाके फड़कनेमें निमित्त कर्ता स्वीकार किया
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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