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________________ १५० जैनतत्त्वमीमांसा रहे यह तो उसका स्वभाव नहीं ही हो सकता । अतः प्रति समय प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने परिणाम स्वभावके कारण ही कार्यरूप परिणमता रहता है। उनमें स्वभावसे ही ऐसी द्रव्य योग्यता कहो या शक्ति कहो होती है जिससे वे प्रत्येक समयमें सुनिश्चित प्रागभावकी भूमिकामें आनेपर उसके योग्य कार्यको तदनन्तर समय में नियमसे जन्म देते हैं । यहो इनका अनित्य स्वभाव है । अपने इस स्वभावके कारण ही उनका अर्थक्रियाकारीपना घटित होता है । उनके इस अर्थक्रियाकारीपनेका वारण ही कौन कर सकता है । इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्तीकी बात तो छोड़ो। जो तीर्थंकर जन्मसे ही अतुल्य बलके धारक होते हैं वे भी प्रत्येक द्रव्यके इस प्रतिनियत स्वभावमें परिवर्तन नहीं कर सकते । हम विचारे अज्ञान और रागादि दोषोंसे दूषित अल्पज्ञानी या अज्ञानी जीवों और तदितर जड पदार्थोंकी क्या सामर्थ्य जो प्रत्येक द्रव्यके इस नियत अर्थक्रियाकारी अनित्य स्वभावके कारण प्रत्येक समय में होनेवाली पर्यायको बदल सकें या उसे आगे पीछे कर सकें। जैसा कोई विकल्पसे सोचता है या नेत्रादि इन्द्रियोंसे देखकर मानता है, कोई भी वस्तु उसकी उस मान्यताके अनुसार परिणमती हो ऐसी तो वस्तु व्यवस्था नही है । अपने विकल्पके अनुसार निर्णय लेना अपने स्थान पर है और प्रत्येक द्रव्यकी प्रत्येक समयमे नियत पर्यायका होना अपने स्थान पर है । देखो, एक द्रव्य दूसरे द्रव्यके किसी भी कार्यको करनेमें समर्थ नही है इस विषय में आचार्य कुन्दकुन्ददेव क्या कहते हैं यह उन्हींके शब्दोंमे पढ़िये जदि पुग्गलकम्ममिण कुम्बदि त चेव वेदर्यादि आदा । दो करियावदिरित्तं पसजदि सम्म जिणावमदं ॥ ८५ ॥ - समयसार यदि आत्मा इस पुद्गल कर्मको करता है और उसीको भोगता है तो वह आत्मा दो क्रियाओसे अभिन्न ठहरता है जो जिनदेवके सम्यक् मतके विरुद्ध है || ८५|| वह जिनेन्द्रदेवके सम्यक् मतके विरुद्ध कैसे है इसका समाधान करते हुए उसी परमागममे बतलाया है - जम्हा दु अत्तभावं पुग्गलभाव च दाबि कुव्वति । तेण दुमिच्छादिट्ठी दोकिरियावादिणो होंति ॥ ८६ ॥ यतः प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समयमें दो क्रियाएँ करता है ऐसा मानने वालोंके मत्तमें आत्मा आत्मभाव और पुद्गलभाव दोनोंको करनेवाला ठहरता है । इसी कारण वे द्विक्रियावादी होनेसे मिथ्यादृष्टि हैं ॥१८६॥
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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