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________________ - करी कर्मनीमांसा उदाहरणार्थ विवक्षित समयमें जीवका जो क्रोध परिणाम उत्पन्न हुवा है उसमें क्रोष संज्ञावाले जो कर्म निषेक बाह्य निमित्त होते हैं वे कर्म निषेक निर्जीण होकर दूसरे समयमें होनेवाले क्रोष परिणामके व्यवहार हेतु होनेवाले क्रोष संज्ञा वाले कर्म निषेक दूसरे होते हैं। यह व्यवहारसे निमित्त नमित्तिक परम्परा जिस प्रकार संसारी जीवोंके प्रत्येक समयके जीवन प्रवाहमें चरितार्थ है उसी प्रकार पुद्गल स्कन्धोंमें भी घटित कर लेनी चाहिये, क्योंकि पुद्गल स्कन्धों में भी प्रति समय नये पुद्गल स्कन्धोंका संयोजन और पुराने पुद्गल स्कन्धोंका वियोजन होता रहता है । जो परस्पर द्रव्य और अर्थरूप पर्यायोंके होनेमें व्यवहार हेतु होते रहते हैं, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव तो हैं ही। तात्पर्य यह है कि उस स्कन्धमें अवस्थित एक समय पूर्वकी स्पर्श पर्यायके व्यय होनेके साथ ही पुराने परमाणुओंकी निर्जराको व्यवहार निमित्त कर उस स्कन्धमें अपने निश्चय उपादानके अनुसार अन्य स्पर्श पर्यायका उदय होता है और उस स्पर्श पर्यायको व्यवहार हेतु कर नये कार्मण परमाणुओंका बन्ध होता है । यहाँ जो मिथ्यात्व आदिको बन्धका निश्चय हेतु कहा गया है वह आत्माकी अपेक्षा ही कहा गया है, कर्म बन्धकी अपेक्षा तो वे मिथ्यात्वादि ब्यवहार हेतु ही होते हैं, क्योंकि उन मिथ्यात्वादिमें पुद्गलादि द्रब्योंके गुणोंका अत्यन्ताभाव है । एक द्रब्यका समान जातीय और असमान जातीय स्वरूपास्तित्व दूसरे द्रव्यमें न होने से भी अत्यन्ताभाव है। स्वरूपास्तित्व किसी भी द्रव्यका उसका उसीमें होता है । देखो, निगोद शरीरमें एक साथ अनन्त जीव निवास करते हैं। पर वे अपने-अपने स्वरूपास्तित्वके कारण फिर भी पृथक्-पृथक् होकर ही निवास करते हैं और अपने-अपने संक्लेशरूप या विशुद्धिरूप परिणामों के कारण अलग-अलग कर्मबन्ध करते है। प्रत्येक द्रव्य स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा है और पररूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा नहीं है यह इसी आधार पर घटित होता है। इस प्रकार जीव और कार्मण वर्गणाओं सहित सभी द्रब्योंमे परमार्थ से परस्पर कर्तृत्व कर्मत्व आदिका निषेध हो जाने पर चाहे विभाव पर्यायों ( आगन्तुक भावों ) से युक्त जीव-पुद्गल द्रव्य हों और चाहे स्वभाव पर्यायोंसे युक्त्त छहों द्रव्य हों, परमार्थसे कोई किसीका किसीरूप. में भी सहायक नहीं है। अपने-अपने अर्थक्रियाकारीफ्नेसे युक्त होकर अवस्थित रहना प्रत्येक वस्तुका वस्तुत्व है। प्रत्येक द्रव्यको वस्तु कहने का कारण भी यही है। अन्य वस्तुके बलसे वह अपने स्वरूप में अवस्थित
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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