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________________ कत कर्ममीमांसा ५. शंका-समाधान शंका-यह ठीक है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको क्रिया नहीं कर सकता। परन्तु प्रत्येक पर्यायमें जो अतिशय उत्पन्न होता है जो कि स्वभाव पर्यायोंमें नहीं देखा जाता उसे बाह्य निमित्तजन्य मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिये। विभाव पर्यायोंके प्रत्येक समयमें बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक जो बाह्य निमित्तोंका संयोजन किया जाता है या होता है और उससे विभाव पर्यायोंमें जो विशेषता उत्पन्न होती है वह स्वभाव पर्यायोंमें भी दृष्टिगोचर होनी चाहिये थी। किन्तु एक विभाव पर्यायसे दूसरो विभाव पर्यायमें जो विशेषता प्रतीतिमें आती है उसे तो बाह्य निमित्तोंका कार्य मानना ही पड़ता है, जब कि ऐसी विलक्षण विशेषता स्वभाव पर्यायोंमें नहीं होती । इसलिये प्रत्येक द्रव्य दो क्रियाओं का एक समयमें कर्ता न होने पर भी जीव और पुद्गल द्रव्योंकी प्रत्येक विभाव पर्यायमें विशेषताको उत्पन्न करनेवाले बाह्य निमित्तोंको मानना ही पड़ता है। इन बाह्य निमित्तोंकी स्वीकृतिकी सार्थकता भी इसीमें है ? समाधान-यहाँ देखना यह है कि प्रत्येक विभाव पर्यायमें अपनी दूसरी विभाव पर्यायसे भिन्न जो अतिशय या भेद दृष्टिगोचर होता है वह उस पर्यायका स्वरूप है या उससे भिन्न है ? भिन्न तो माना नहीं जा सकता है, क्योंकि भिन्न मानने पर वह स्वतन्त्र पर्याय हो जायगी जिसका विवक्षित पर्यायकी उत्पत्तिके समय उत्पन्न होना सम्भव नहीं है। यदि वह विवक्षित पर्यायका ही स्वरूप है तो बाह्म निमित्तने नया क्या। किया। विवक्षित स्वरूपवाली पर्यायको तो विवक्षित द्रव्यने स्वयं ही। उत्पन्न किया है। दूसरे बाह्य निमित भिन्न सत्ताक द्रव्य हैं और यह सम्भव नहीं कि अत्यन्त भिन्न स्वतन्त्र सत्तावाले द्रव्योंका अतिशय किसी दूसरे द्रव्यमे रहे या वह उसका कर्ता बने। वे तो मात्र सादृश्य । सामान्यको देखकर अविनाभाववश काल प्रत्यासत्ति होनेसे निमित्त कहे गये हैं, जो मात्र द्रव्य निक्षेपको विषय करनेवाले द्रव्यार्थिक नयसे ही कहा गया है। उनमें अपनेसे भिन्न दूसरे द्रव्योंका अन्वय तो पाया ही नहीं जाता और उसके विना उसमें दूसरे द्रव्यकी पर्यायरूप विशेषताको उत्पन्न करना सम्भव ही नहीं है। वह विशेषता पर्यायसे भिन्न नहो इसका निर्णय क्रोध और मान इन दो पर्यायोंको सामने रखकर किया जा सकता है ? शंका-क्रोधपना और मानपना स्वभाव पर्यायोंमें नहीं होता।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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