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________________ १४८ जैनतत्त्वमीमांसा पर्यायोंकी अपेक्षा अनित्य है। इसलिये वह नित्यानित्य स्वभावको लिये हुए हैं। पंचास्तिकायमें इस तथ्यका निर्देश करते हुए लिखा है दवियदि गच्छदि ताई ताई सब्भावपज्जायाइं ज। दवियं तं भण्णंत अणण्णभूदं तु अत्तादो ।।९।। जो उन-उन सद्भावस्वरूप पर्यायोंको व्यापता है सर्वज्ञदेव उसे द्रव्य कहते हैं। वह और सत्ता नामान्तर है, इसलिये वह सत्तासे लक्ष्य-लक्षणकी अपेक्षा भेद होने पर भो वस्तुरूपसे एक है ॥९॥ पर्यायोंके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए आचार्य अमृतचन्द्रदेव कहते हैं__देव-मनुष्यादिपर्यायास्तु क्रमबतित्वादुपस्थितातिवाहितसमया उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति । पञ्चास्तिकाय गाथा १८ । देव, मनुष्यादि पर्यायें तो क्रमवर्ती होनेसे जिनका समय उपस्थित हुआ है वे उत्पन्न होती हैं और जिनका समय बीत गया है वे व्ययको प्राप्त होती हैं। यहाँ देव-मनुष्यादि पर्यायोंको क्रमवर्ती कहा है। इससे सिद्ध है कि द्रव्यस्वभावमे पर्यायोंके होनेका जो क्रम सुनिश्चित है उसी क्रमसे अपनेअपने कालमें वे होती है और व्ययको प्राप्त होती हैं। आचार्य अमृत चन्द्रने प्रवचनसारमें लटकती हुई मणियोंकी माला द्वारा इसी तथ्यको स्पष्ट किया है। यह द्रव्य और उनकी पर्यायोंका स्वरूप है। इसमें स्वरूपसे उत्पाद और व्ययरूप प्रत्येक पर्याय निश्चित क्रममें नियत होनेसे स्वकालमें ही उसका उत्पाद और स्वकालमें ही उसका व्यय होता है ऐसा उनका स्वभाव है। नियम यह है कि प्रत्येक द्रव्यमें प्रत्येक पर्यायकी अपेक्षा स्वभावसे षट्स्थानपतित हानि और षट्स्थानपतित वृद्धिरूपसे प्रवर्तमान अनन्त अगुरुलघुगुण ( अविभाग प्रतिच्छेद ) होते हैं। जिनके कारण छहों द्रव्यों की पर्यायोंका स्वभावसे उत्पाद और व्यय होता रहता है । जो शुद्ध द्रव्य हैं उनकी पर्यायोंका भी यह उत्पाद-व्यय होता है और जो द्रव्योंकी अशुद्ध पर्यायें हैं उनका भी यह उत्पाद-व्यय होता है। इतना अवश्य है कि विभाव पर्यायोंकी अपेक्षा अशुद्ध व्यवहारके योग्य द्रव्योंके प्रति समय उत्पाद-व्ययको सूचित करनेवाले अन्य-अन्य व्यवहार हेतु होते हैं।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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