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________________ ७८ जनतत्त्वमीमांसा __इसीलिये निश्चय उपादानके साथ व्यवहार हेतुकी मर्यादाका कथन करते हुए अष्टसहस्री पृ० २१० का यह वचन दृष्टव्य है असाधारणद्रव्यप्रत्यासत्तिपूर्वाकारभावविशेषप्रत्यासत्तिरेव च निबन्धनमुपादानत्वस्य स्वोपादेयं परिणाम प्रति निश्चीयते । । असाधारण द्रव्य प्रत्यासत्ति और पूर्वाकाररूप भावविशेष प्रत्यमत्ति ही अपने उपादेयरूप परिणामके प्रति उपादानपनेरूपसे कारण है ऐसा निश्चित होता है। प्रत्येक कार्यके प्रति यथासम्भव व्यवहार हेतु किस प्रयोजनसे स्वीकार किया गया है यह बात तो अन्य हैं। प्रश्न यह है कि नियत पूर्वाकार परिणत द्रव्य नियत उत्तराकार परिणत द्रव्यका निश्चय उपादान है या नहीं? परमागममें इस तथ्यपर बारीकीसे विचार करते हुए यह दृढ़ताके साथ स्पष्ट किया गया है कि अव्यवहित नियत पूर्व पर्यायसे परिणत द्रव्य जैसा होगा उससे अव्यवहित उत्तर कालमें वही कार्य होगा। कोई भी व्यवहार हेतु उसे नियत कार्यसे अन्यथा नही परिणमा सकता। और इसीलिये आप्तमीमांसाके दोषावरणयोहानि इसमें प्रयुक्त द्विवचनका समर्थन करते हए आचार्य विद्यानन्द अष्टसहस्रीमे कहते हैं तद्धे तु. पुनरावरण कर्म जीवस्य पूर्वस्वपरिणामश्च । अतः जीवमें अज्ञानादि दोषका हेतु आवरण कर्म और जीवका अव्यवहित पूर्व समयवाला अपना परिणाम है। इस प्रकार यह निश्चित होता है कि नियत कार्यका नियत उपादान नियमसे होता है। ऐसा नहीं है कि निश्चय उपादान अन्य हो और कार्य व्यवहार हेतुके बलपर अन्य हो जाय । जो व्यवहाराभासी ऐसा मानते है वे मात्र ऐसे कथन द्वारा परमागमका ही अपलाप करते है। यद्यपि वे अपने इस मतके समर्थनमे आगमकी दुहाई देते हैं। पर आगममें उनके इस मतका समर्थन करनेवाला एक भी उल्लेख नही उपलब्ध होता। किन्तु उनके इस मतके विरुद्ध ही पूरा जिनागम पाया जाता है। और इसीलिये स्वामी कार्तिकेयने द्वादशानुप्रेक्षामें यह घोषणा की है णव-णवकज्जविसेसा तीसु वि कालेसु होंति वत्थूण । एक्केक्कम्मि य समये पुव्वुत्तरभावमासेज्ज ॥२२९॥
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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