SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निश्चयउपादाम-मीमांसा वस्तुओंमें तीनों ही कालोंमें प्रति समय पूर्व और उत्तर परिणामकी) अपेक्षा नये नये कार्य विशेष होते हैं। इसी उल्लेख द्वारा आचार्यने तीनों कालोंमें जितने कार्य उतने ही/ उनके निश्चय उपादान कारण इस तथ्यको स्पष्ट किया है। इसीको प्रत्येक द्रव्यका स्वकाल भी कहते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रतिसमयके प्रत्येक कार्यका निश्चय उपादान सुनिश्चित है। इस सुनिश्चित व्यवस्थाका अपने इन्द्रिय प्रत्यक्ष, तर्क और अनुभवके आधारपर अपलाप करना एक द्रव्याश्रित कार्य-कारण भावको ही मटियामेट करना है। मै तो इसे आगमकी अवहेलना करनेरूप सबसे बड़ा अपराध मानता हूँ । व्यवहारका समर्थन करना और बात है। परन्तु उसके समर्थन करने के लिए परमार्थका अपलाप नहीं किया जाता। वह कैसा श्रुतज्ञान है। जो निश्चय उपादनरूप परमार्थका अपलाप कर मात्र व्यवहारकी/ स्थापना करता है। नैगमनयका बहुत बड़ा पेट है। पर उसकी एक मर्यादा है। जिससे अजीर्ण हो जाय ऐसी नैगमनयकी प्ररूपणा किस काम की । जहाँ भी नैगमनयसे व्यवहार हेतुकी पुष्टि की गई है वहाँ इन दृष्टियों को सामने रखकर ही व्यवहार हेतुकी पुष्टि की गई है (१) सर्वत्र आचार्योंने एक द्रव्याश्रित अन्तर्व्याप्तिको ही मुख्य रूपसे स्वीकार किया है । तात्पर्य यह है कि द्रव्य अपने नित्य स्वभावके समान परिणामस्वभावी भी है, इसलिए वह अन्यकी सहायताके विना स्वयं अपने परिणामको करता है और वह ऐसे ही परिणामको करता है जैसा उसका निश्चय उपादान होता है। ऐसी ही इन दोनोंमें एक द्रव्याश्रित अन्तर्व्याप्ति है । वस्तुतः देखा जाय तो उस परिणामको निश्चय उपादान भी नही करता है, क्योंकि उसका ध्वंस होकर ही कार्यको उत्पत्ति होती । है। और बारीकीसे देखा जाय तो द्रव्यका नित्य स्वभाव तो स्वयं अपरिणामी है और जिस समय कार्य हुआ उस समय अव्यवहित पूर्व पर्याय स्वभावका ध्वंस हो गया है। तो भी कार्य तो होता ही है, इसलिए यह निश्चित होता है कि विवक्षित कार्य अपने कालमें स्वयं है । बात इतनी है कि निश्चय उपादानके अनुसार स्वयं कार्यको मर्यादा बनती है। अत. यह एक द्रव्याश्रित कथन है, इसलिए सद्भूत व्यवहारनयसे निश्चय उपादान-उपादेय भाव स्वीकार किया गया है। तथा परिणामो तथा परिणाममें अभेद स्वीकार कर द्रव्यको अपने परिणाम का कर्ता कहा गया है।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy