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________________ G४ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. स्त्रीपुंसोप्यधिका त्रिपदविशदापुंरत्नखानिर्यतः,स्वा मिन्या मरुदेवया तु सदृशीनूताननाविन्यपि ॥ वि श्वार्योंजिनचक्रिणोप्रथमतोयत्पुत्रपौत्रावदो,याप्रागे व शुनेलयनूनिवपुरप्रस्थानकस्था प्रनोः ॥ १॥ अर्थः- (पुंसः अपिअधिका के० ) पुरुष थकी पण अधिक एवी तथा जे (त्रिपदविशदा के०) मातृपद, पितृपद, अने श्वसुरपद, एवा त्रणे पदोयें करी निर्मल, एवी वली ( यतः के०) जे कारण माटे ( स्त्री के०) ते स्त्री (पुंरत्नखानिः के०) पुरुष रूप रत्ननी खाण एवी (मरुदेवया के०) मरुदेवा (स्वामिन्या के०) स्वामिनी (सदृशी के०) सरखी कोई पण (ननूता के०) जथी थइ तथा ( ननाविनीअपि के ) थवानी पण कोइ नथी. वली (अहो के०) आश्चर्ये ( यत्पुत्रपौत्रौ के) जे मरुदेवीना पुत्र श्रीरुपनदेव अने पौत्रा श्रीनरत ते केवा डे तो के ( विश्वार्यों के०) सर्व विश्वमां आर्य ले तथा वली कहेवा ने तो के (जिनचक्रिणौ के०) ए श्रीषनदेव जिनेश्वर तीर्थकर थया ले तथा बीजा श्रीनरत ते चक्रवर्ती थया . वली (या के०) जे मरुदेवी (प्रनो के० ) श्रीरुपनदेव तीर्थ करनी (प्रागेव के०) प्रथमज (शुनेह्नि के० ) गुनदिवसनेविपे ( शिवपुरप्र स्थानकस्था के०) शिवपुर प्रत्ये प्रस्थानने विपे रहेनारां (अनूत् के० ) थतां हवा. जेम बीजो कोई पुरुष पण महोटा कार्यने माटे जती वखतें प्रथमथी प्रस्थान मूके छे तेम ज्यां नगवान् श्रीषनदेवजी शिवपुर प्रत्यें आवनार ने तेना प्रस्थानने माटे प्रथमथी श्रीमरुदेवी माताजी पोतेंज प्रस्थानने विषे रहेतां हवा. एवी स्त्री जगत्मां उत्तम जाणवी ॥ ७१ ॥ या श्लोकमां मरुदेवीनो दृष्टांत होवाथी तेनी कथा कहे जे. अयोध्या नेविपे नानिराजानी स्त्री मरुदेवीजीना पुत्र श्रीषन देवजी हता तेमणे पोताना सो पुत्रने राज्य आपी दीक्षा ग्रहण करी पनी पोताना पुत्रना कुःखें करीने मरुदेवीनां चढुने पडल आव्यां ते ज्यारें षनदेवजीने पु रिमतालनेविषे वडनी नीचें केवलज्ञान उत्पन्न थयु, त्यारे तेमना पुत्र न रत चक्रवर्ती मरुदेवीजीने हस्तीउपर बेसारीने श्रीरुषनदेवजीने वंदन कर वा गया त्यां श्रीषनदेवजीनी वाणी सांजलीने मरुदेवि माताने हर्ष न
SR No.010250
Book TitleJain Katha Ratna Kosh Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1891
Total Pages401
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size44 MB
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