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________________ २८‍ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. अथ श्रीमंद्यशोविजयजी उपाध्यायकृत समकितना पट्स्थान स्वरूपनी चोपाई अर्थसहित प्रारंभ ॥ प्रथम ग्रंथकर्त्तानुं मंगलाचरण ॥ नितं नत्वा वीरतत्त्वार्थदेशिनम् ॥ " सम्यक्त्वस्थानपट्कस्य, नाषेयं टिप्यते मया ॥ १२ ॥ ॥ मूलगाथा 11 ॥ वीतराग प्रणमी करी, समरी सरसति मात ॥ कहिनुं नविहित का रणे, समकितना व्यवदात ॥ १ ॥ अर्थ :- श्रीवीतराग देवने प्रणमी क री प्रजुनी वाणी जे श्रीसरस्वती माता तेने समरीने नव्यजीवना हितने कारणे समकितना अवदात एटले चरित्र कहीशुं ॥ १ ॥ ॥ दर्शन मोह विनाशयी, जे निरमल गुणगण ॥ ते समकित तस जायें, संखेपे खटाए ॥ २ ॥ अर्थः- दर्शनमोहनीयकर्मनो विनाश जे हय, उपराम ने हायोपशमरूप तेथी जे मलरहित एवं गुणनुं स्था क कप ते निश्वयथी समकित जाणियें. उक्तंच ॥ सेयसमत्तपसबे, सम्मत्त मोहलिकममा || वेयलोवसमखय, समुबेसु प्राय परिणामे || ॥ इति ॥ ते समकेतना संक्षेपेंकरी जे कहेशे ते षट्स्थानक जाणवां, जे स्वसमय श्रद्धान प्रकार ते स्थानक कहियें ॥ २ ॥ ॥ हवे ते षट्स्थानकनां नामनी गाथा कहे बे. विजिन तह णिच्चो, कत्ता जुत्ता य पुस्पावा | बिधुव निवा णं, तस्सोवा बहाणा ॥ ३ ॥ अर्थः- एक जीव बे, बीजो ते जीव नित्य बे, त्रीजो तथा चोथो ते जीव स्वयं पुष्यनो कर्त्ता, जोक्ता बे, खने पा पनो कर्त्ता, जोक्ता पण बे, पांचमो ते जीवने निर्वाण एटले मोक्ष पण (ध्रुव के० ) निश्चें ( के० ) बे, बो ते मोह थवानो उपाय पण निश्चय मां संदेह नथी. ए व स्थानक समकेतनां जावां ॥ ३ ॥ ॥ समकित थानकथी विपरीत, मिथ्यावादी यति यविनीत व सवे जूजूवा ॥ जिहां जोइयें तिहां जंमा कूवा ॥ ४ ॥ ॥ तेहना जा अर्थः- ए स
SR No.010250
Book TitleJain Katha Ratna Kosh Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1891
Total Pages401
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size44 MB
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