SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन जगती RECORRECOil * अतीत खण्ड 8 हम रत्न से कंकड़ हुये; हम राव थे, अब रंक हैं; होकर अहिंसा-स्रोत की झख मर रही अघ-पंक हैं। कितना बढ़ा है ? बढ़ रहा फिर घोर पापाचार है। श्रीमंत का अब दीन पर होता निरंतर वार है ॥ २६ ॥ भूमी हमारी काल-दर में गप्प यों हो जायगी; फिर यत्न कितने भो करो, फिर तो न मिलने पायगी। पुरुषार्थ में ही अर्थ है ह बंधुओं! यदि स्वाँस हो; दाँहे खड़े अखिलेश हैं, यदि ईश में विश्वास हो ॥ ३० ॥ दिनकर हमारा खो गया, अब रात्रि का विश्राम है ! करवाल लेकर काल अब फिरता यहाँ उद्दाम है ! हे नाथ ! आँखों देखते हो, मौन कैसे हो रहे ? क्या पापियों को पाप का तुम भोगने फल दे रहे ? ॥ ३१ ।। हमारे पूर्वज मैं उन असीमाधार की सीमा कहूँ कैसे ? कहो; क्या नीरधर जलराज को भी कर सके खाली ? कहो। मैं रश्मि हूँ, वे रश्मिमाली; वे उदधि, घटवान मैं; संगीत के, सारंग-पाणी; क्या करूँ गुणगान मैं ! ।। ३२ ।। हैं गान उनके गूंजते अब भी गगन, जलधार में, पवमान, कानन, अनल में अरु फूट कर तल पार में। पिक, केकि, कोंका, सारिका सब गान उनके गा रहे पर हाय ! मेरे तार विगलित स्वर बिगाड़े रो रहे ।। ३३ ।।
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy