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________________ जैन जगती. 2000RRecor अतीत खण्ड अपमान होगा हाय ! उनका जो मनुज सीधा कहूँ; तब सुर कहूँ, सुरनाथ या फिर और कुछ ऊपर कहूँ। जब इन्द्र, ज्योतिष, देव, व्यंतर कर रहे सेवा अहो! वे तरण तारण, पतित-पावन, सिद्ध, योगी थे अहो ॥ ३४॥ धर्मार्क-सरसिज-प्राण थे, वे धर्मपंकज-भंग थे; वे धम-सरवर-मीन थे, सोपान-मेरु-शृग थे। वे सर्ववर्ती भाव थे, वे मोक्षवी जीव थे; चारित्र की दृढ़ नीव थे, वे ज्ञान-दर्शन-सीव थे ॥ ३५ ॥ वे शान्ति-संयम पूर्ण थे, दाक्षिण्य में रण-शूर थे; वे धीर थे, गंभीर थे, सद्धर्म-मद में चूर थे । निर्लेप थे, निष्पाप थे, कामारि थे, शिवराज थे; वे कर्म-पशुदल काटने में वर निडर पशुराज थे ।। ३३॥ थीं शारदा झाड़ लगाती, चरण चपला चूमती; जिनके घरों में सिद्धियाँ थीं सेविका-सी घमतीं। था कौन-सा वह ऐश ऐसा--प्राप्त उनको हो नहीं; पर ऐश के पीछे उन्हें आतुर कभी देखे नहीं ।। ३७ ॥ वे चक्रवर्ती भूप थे, षड्-खण्ड लोकाधीप थे; भू, वह्नि, जल, नभ, वायु पर उनके जगामग दीप थे । था कौन ऐसा कर्म जिसको वे नहीं थे कर सके; था कौन. ऐसा सुर, मनुज जिसको न वश वे कर सके ?!! ३८॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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