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________________ जैन जगती 30000 * अतीत खण्ड ® मिट जाय चाहे मेदिनी-हम, कर्म मिट सकते नहीं; अस्तित्व इनका तब मिटेगा जब अमर होंगे नहीं। कंकाल काले रूप में भी भूप तुमको कर दिया; बस लोह को पारस छुआ कर हम हमने कर दिया ।। २४ ।। था भोग-भूमी' देश, चाहे कम-भूमी१२ नाम था; अपवर्ग से बढ़कर यहाँ उपलब्ध सुख अभिराम था। हम कर चुके थे स्वर्ग विस्मृत, स्वर्ग इसको मानते; इसको पिता, माता इसे; निज गेह इसको जानते ॥२५॥ हर ठौर जम्बूद्वीप में थे कल्प-तरुवर १४ लग रहे। पुरुपार्थ बिन प्रारब्ध-फल स्वादिष्ट मधुरम फल रहे । सब थे चराचर प्रेम भीगे, प्रममय सवेम्व था; थे अग्नि, जल, पव प्रेममय; यह प्रेममय सब विश्व था।॥ २६ ॥ अमृत भरे कंचन-कलश से हाय ! विप क्यों बह रहा! चेतन हमारे प्राण में जड़-भाव किश आ रहा! क्या भाग्य-दिनकर छिप गया ! क्या सृष्टि का विश्राम है ! केली-सदन यमराज का अब देश भारत-धाम है !!! ॥ २७ ॥ थी जैन-जगती जो कभी मन-मोहिनी, भू-सुन्दराहा ! अब बचाने प्राण-धन वह शोधती गिरि-कन्दरा। कैसी बनी थी मेदिनी! अरु मेद-वर थे क्या कहूँ ! इसको कहूँ यदि मानसर-कल हंस हम थे, क्या कहूँ !!।। २८ ।।
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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