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________________ *जैन जगती * Recof * भविष्यत् खण्ड 8 बहिनो ! बढ़ो तुम चीर कर संकोच, लज्जा-चीर को; कामी जनों से भिड़ पड़ो तुम खींचकर शमशीर को । अन्यायियों ने आज तक तुम पर किया अन्याय है; अन्यायियों के तो लिये तलवार अन्तिम न्याय है || १५५|| मूर्खा न तुम अब यों रहो ! पर्दा नशीना नहि रहो ? श्रममा हिताहित सोच लो दासी अधिक अब नहिं रहो। समभाग पाने के लिये अब तुम लड़ो जी खोल कर; seat है आप तो, आधा उठालो तोल कर || १५६ || बहिनो ! तुम्हारे जब उरों में क्रान्ति लहरा जायगी; इस वृद्ध भारतवर्ष में गत शक्ति फिर आजायगी । अनमेल, अनुचित पाणि-पीड़न बंद सब हो जायँगे; नर रत्न फिर देने लगोगी, फिर धनी हों जायँगे ॥१५७॥ विधवाधो भवितव्यता तो फलवती होये बिना रहती नहीं; प्रारब्ध के अनुसार ही भवितव्यता बनतो सही । पुरुषार्थ से प्रारब्ध का निर्माण होता है सदा; जिस भाँति का पुरुषार्थ है, प्रारब्ध वैसा है सदा || १५८ || पुरुषार्थ तुम करती नहीं, फिर भाग्य को तुम दोष दो; सब कुछ तुम्हारा दोष है, क्यों दूसरों को दोष दो । स्वाधीन होने जा रहे स्वैरिन तुम्हें तो नर करें; वैधव्य-वर्द्धक साधनों को तोड़कर निःजड़ करें ।। १५६ || १७८
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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