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________________ जैन जगती 200000 * भविष्यत् लण्ड 8 पीछे तुम्हारे भूप कितने रंक निर्धन हो गये ? पाकर तुम्हें योगी, ऋषी पथ-भ्रष्ट कितने हो गये ? इस काल के ये मनुज तो फिर क्या विचारे चीज हैं; यह मोहिनी बहनो! तुम्हारी काम का हो बीज है !! ॥१५०।। वैसे जगत में काम की जगती सदा ही आग है; अनुकूल यदि तुम मिल गई, दूनी भड़कती आग है। कलिकाल द्वापर में तुम्हारी जाति में भी शक्ति थी; अतएव कामी मनुज की चलती न कोई युक्ति थी ॥१५१।। तुम हाय ! बहिनो आज तो इतनी पतित हा ! होगई ! रसराज-क्रोड़ा की अहो साकार प्रतिमा हो गई ! संयम-भरा वह स्त्रैण-बल जब तक न तुम में आयगा; तब तक न कोई अन्त हा! इस दुर्दशा का आयगा ! १५२।। बहिनो ! तुम्हारे हाथ में कितना अतुल बल-वीर्य है ! क्या बादशाही काल में कुछ कम दिखाया शौय्ये है ? वह बल तुम्हारे में अभी यदि क्रान्ति करके जग उठे; बहिनो! तुम्हारी अवदशा यह निमिष भरमें जल उठे॥१५३।। पर आज तो बहनो ! तुम्हें कटु शील है लगने लगा; बालायु में ही आपका अब काम मन हरने लगा। यह मनुज कामी श्वान है, कामी शुनी तुम बन गई; अब नाश की तैय्यारियों में क्या कमी है रह गई ॥१५॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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