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________________ जैन जगती Reace ॐ भविष्यत् खण्ड. विदुषी बनो तुम एक दम, अतिचार होता रोक दो; कामी जनों के बदन पर शत लात-मुक्के ठोक दो। फलती हुई निज कामना नर छोड़ दें-सम्भव नहीं; इस हेतु शायद है न कन्या-पाठशाला-गृह कहीं ।।१६०॥ सभा अब ऐक्यता-सौहार्दशीलन हर सभा का ध्येय हो, मत्सरनारल के स्थान पर अब प्रेम-रस ही पेय हो। अब व्यक्तिगत कल्याण की सब कामनाएँ तोड़ दो; बढ़ते हुए वैशम्य की ग्रीवा पकड़ कर मोड़ दो ॥१६॥ कु-प्रपंच करना छोड़ दो, गाँठे हृदय की खोल दो; सब में परस्पर प्रेम हो, मिश्री मनों में घोल दो। सब हो सभाए एकविध हो सूत्र सब का एक सा; कोई सभा में हो नहीं वह साम्प्रदायिक कर्कशा ॥१६२।। मण्डल अब मण्डलो ! नहिं साम्प्रदायिक बंधियाँ करते रहो; हो ध्येय-च्युत निज वर्ग का मण्डन नहीं करते रहो। उपकार जात्युद्धार ही अब मण्डलों का ध्येय हो; उत्थान के छोटे बड़े सब मार्ग तुमको श्रेय हो ॥१६॥ यदि मण्डलो ! तुम पूछते हो सच मुझे तो अब कहूँधन्वी सभा, मण्डल इषु, दल दण्ड, लक्षित हम-कहूँ। तुम दीन हो, दीना तुम्हारी जाति, भारत दीन है। मण्डन करो हे मण्डलो ! अब तो रही कोपीन है ॥१६॥ १७६
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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