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________________ जैन जगती * भविष्यत् खण्ड श्रीमन्त हो, पर वस्तुतः श्रीमंतता तुममें नहीं; लक्षण कहीं भी आपमें श्रीमन्त के मिलते नहीं! श्रीमन्त भामाशाह थे, श्रीमन्त जगडूशाह थेवे देश के, निज जाति के थे भक्तवर, वरशाह थे !! ||८०॥ उन मस्तकों में शक्ति थी, उनको रसों से मुक्ति थी; निज जाति प्रति, निज धर्म प्रति उनके उरों में भक्ति थी। श्रीमन्त वे भी एक थे, श्रीमन्त तुम भी एक होकंजूस, मक्खीचूस तुम श्रीमन्त ! नम्बर एक हो !! ।।१।। नहि धर्म से कुछ प्रेम है, साहित्य से अनुराग है ! अतिरिक्त रति-रस-रास के किसमें तुम्हारा राग है ? जब आठ की तुमको प्रिया वय साठ में भी मिल सके। ऐसे भला रसरास में तुम ही कहो-चख खुल सके ? |HE तुमको कहो क्या जाति का दुर्दैन्य खलता है नहीं ? पड़ती उधर यदि है दशा, चढ़ती इधर तो है सही? हैं आप भी तो जाति के ही स्तंभ अथवा अंश रे! भूचाल से शायद अचल होते न होंगे धंश रे ! ॥३॥ अवहेलना कर जाति की तुम स्वर्ग चढ़ सकते नहीं; रहना उसी में है तुम्हें, हो भिन्न जी सकते नहीं! . ...: श्रीमन्त ! चाहो श्राप तो सम्पन्न भारत कर सको , आर्थिक समस्या देश की सुन्दर अभी भी कर सको।।४ '. १६३
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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