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________________ * जैन जगती * भविष्यत् खण्ड नहिं ध्यान तुमको जाति का, चिंता नहीं कुछ धर्म की; उन्मूल चाहे देश हो, सोचो नहीं तुम मर्म की । रोते हुए निज बन्धु पर तुमको दया नहिं आ रही; उनके घरों में शोक है, लीला तुम्हें है भा रही ! ।। ७५ ।। रसचार श्रीधर ! आपका अत्र लेखने ही योग्य है ! क्रंदन तुम्हारे बन्धु का भी श्रवण करने योग्य है ! श्रीमन्त ! देखो तो तुम्हारा वृत्त कैसा हो रहा ! दयनीय हालत देखकर यह जन तुम्हारा रो रहा ! ।। ७६ ।। अब रह गये कुल आपके ये चार जीवन-सार हैंरतिचार है, रसचार है, शृङ्गार है, रसदार है तुमको कहाँ अवकाश है 'रतिजान' के तनहार से !क्या तार उर के हिल उठेंगे दीन की चित्कार से ? ॥ ७७ ॥ तुमको पड़ी क्या दीन से ? क्यों दीन का चिन्तन करो ! नानी मरी है आपकी जो आप यों फट करो ! रसचार पीछे क्या छिपा है आपको कुछ भान है ? कृतकाम कौशल हो रहा यमराज का कुछ ध्यान है ? ॥ ७८ ॥ तुम जाति का, तुम देश का दारिद्रय चाहो हर सको; यह कारखाने खोलकर तुम निमिष भर में कर सको । धनराशि कुछ कमती नहीं अब भी तुम्हारे पास में; कैसे सकोगे सोच पर सोते हुये रतिवास में !! ॥ ७६ ॥ १६२
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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