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________________ * जैन जगती 666 8. भविष्यत् खण्ड तुमने किया क्या आज तक ? क्या कर रहे तुम हो अभी ? अधिकांश लेखा दे चुका; अवशिष्ट भी सुनलो अभी । पर चेतना से हाय ! तुम कब तक रहोगे दूर यों ? -मूर्च्छा कहो कब तक तुम्हारे से न होगी दूर यों ? ॥ ८५ ॥ 'पैसा तुम्हारे पास है जब, क्या तुम्हें दुख हो सके ? नव नव तुम्हारे पाणि-पीडन सरलता से हो सके ! झगड़े-बखेड़े जाति में दिन-रात तुम फैला रहे:क्या जाति के हरने नहीं तुम प्रारण जीवन पा रहे ? ॥ ८६ ॥ तुम कहीं हम हैं नहीं, हम बिन नहीं कुछ आप हो; हम हैं अनुगमब आपके, अग हमारे आप हो । अतिरिक्त हमको आपके फिर कौन जन सुखकंद है ? हम - आपमें शिव प्रेम हो- आनंद ही आनंद है ॥ ८७ ॥ - अब छोड़कर यह रास-रस कुछ जाति का चिंतन करो; .मजबूत कर निज जाति को तुम जाति में सुख-धन भरो । समभो धरोहर जाति की, निज राष्ट्र की निज कोष को; - कौशल, कला, व्यापार से सम्पन्न करदो देश को ॥ ८ ॥ निज देश को, निज राष्ट्र की, निज धर्म की, निज जाति की, - श्रीमन्त ! पहिले देख लो, है अब दशा किस भाँति की । - दुर्भिक्ष, संकट, शोक हैं, दारिद्रय, भिक्षा, रोग हैं ! दो एक हो तो जोड़ दें, - कोटी करोड़ों योग हैं !! ॥ =६ ॥ १६४
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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