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________________ जैन जगती, POSTAcce भविष्यत् खण्ड जब साम्प्रदायिक द्वेष, मत्सर से तुम्हें भी द्वेष था; उन सद्रों में आपके जब क्लेश का नहिं लेश था, जिन जाति का उत्थान भी संभव तभी था हो सका! जब गिर गये गुरु ! आप, पतनारंभ इसका हो सका ॥४०॥ जिन धर्म के कल्याण की यदि है उरों में कामना, जिन जाति के उत्थान की यदि है उरों में चाहना, इस वेषपन को छोड़कर सम्पत्त्व-व्रत तुम दृढ़ करो; यों साम्प्रदायिक व्याधियों का मूल उच्छेदन करो॥४१॥ कंचन तुम्हें नहिं चाहिए, नहिं चाहिए तुमको प्रिया; फिर किस तरह गुरु ! आपमें यों चल रही है अनुशया ? आत्माभिसाधन के लिये संसार तुमने है तजा; फिर प्रेम कर संसार से क्यों आप पाते हैं सज़ा? ॥४२॥ बदला हुआ है अब जमाना, काल अब वह है नहीं; उस काल की बातें सभी अनुकूल घटती हैं नहीं। युग-धर्म को समझो विभो ! तुम से यही अनुरोध है; कर्तव्य क्या है आपका करना प्रथम यह शोध है ? ॥४३॥ इसमें न कोई भूठ है, अब मोक्ष मिलने का नहीं; तुम तो भला क्या सिद्ध को भी मोक्ष होने का नहीं ! तिस पर तुम्हें तो राग, माया, कोह से प्रति प्रेम है। भावक, श्रमण मिलकर उठो, अब तो इसी में क्षेम है ।। ४४॥ १५५
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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