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________________ जैन जगती, SocceNTACCOEn 9 भविष्यत् खण्ड जब तज चुके तुम विश्वको-अपमान, आदर कुछ नहीं; उन्मुख सभी हो जायँ तुमसे-कर सकेंगे कुछ नहीं। त्यागी-विरागी-साधु हो, अवधूत हो, तप-प्राण हो; संभव असंभव कर सको तुम कम-प्राणा-प्राण हो।। ३५ ।। कर में तुम्हारे आज भी गुरुराज ! यह जिन जाति है; सकती न हिल इस ओर से उस ओर कोई भाँति है ! तुम हो पिता, यह है सुता-विच्छेद कैसे घट सकें ? शाखा भला निज वृक्ष से क्या भिन्न होकर फल सकें ।। ३६ ।। जिन जाति-जीवन प्राण के तुम मर्म हो, तुम धर्म हो, तुम योग हो, तुम ऐश हो, तुम ज्ञान हो, तुम कम हो, आमग-निगम हो, शास्त्र हो, साहित्य के तुम मूल हो, आध्यात्म-जीवन के लिये जलवायु तुम अनुकूल हो॥ ३७ ।। हा ! हंत ! ह भगवंत ! कैसे आज हो तुम, क्या कहूँ ? मैं बहुत कुछ हूँ कह चुका,इससे अधिक अब क्या कहूँ ? मैं नम्रता से कर रहा हूँ प्रार्थना गुरु ! आपसे;गुरुदेव ! अपगति आपकी अज्ञात है क्या आपसे ? || ३८॥ मुनिवर्ग में सर्वत्र ही हैं रण परस्पर हो रहे ! इस रण-थली में धर्म के सब तत्त्व मुर्दे हो रहे ! तन, मन, वचन अरु कम में पहिले तुम्हारे योग था ! आचार में, व्यवहार में नहि लेश भर भी रोग था ।। ३६ ।। १५४
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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