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________________ जैन जगती Recenese भविष्यत् खण्ड गुरु ! आप मुनिपन छोड़कर श्रावकपना धारण करेंऐसा कथन मेरा नहीं,शिव ! शिव ! हरे ! शिव ! शिव! हरे! जब तक नहीं गुरु ! साधुगण सभ्यत्व-पद तक जा सके, उपयुक्त तब तक के लिये यह कथन माना जा सकें ॥४५॥ तुम पीटते हो ढोल अपने साधुपन का विश्व में; आदर्श क्या वह साधुपन अब है तुम्हारे पार्श्व में ? इस नमपन से नग्नपन अब तो नहीं गुरु! पा सको; यदि आज मत्सर छोड़ दो,कल को उसे तुम पा सको ।। ४६।। तब ढोंग, आडम्बर तुम्हें मिथ्या न करना चाहिए वैसे न हो जब आज, नहिं वैसा दिखाना चाहिए। शास्त्रोक्त साध्वाचार तुम जब पाल सकते हो नहीं; प्राचार में वर्तन करो ऐसा कि कुछ तो हो सही॥४७॥ ये गच्छ, स्तुति अरु पंथ गुरुवर ! आप के ही पंथ है; ये थे कभी सुन्दर, मनोहर-आज विकृत पंथ हैं। इन गच्छ,स्तुति अरु पंथ के जब तक न झगड़े अंत होतब तक नहीं संभव कहीं उत्थान-तुम धीमन्त हो ॥ ४८।। तुमको पड़ी पर गर्ज क्या, तुम ध्यान क्यों देने लगे ! मरते हुये का बाप रे! तुम क्यों भला करने लगे! गिरते हुये पर आप गुरुवर ! टूट विद्युत-से गिरे ! ऐसी दशा में आश है क्या हाय ! जीवन की हरे ! ॥४६॥ १५६
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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