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________________ जैन जगती भविष्यत् खण्ड . क्या बन्धुओ ! अब भी तुम्हें संचेतना नहिं आयगी ? तुम खो चुके सर्वस्व, अब बाजी बदन पर आयगी! हे बन्धुओ ! अब तो जगो, अब तो सहा जाता नहीं ! संबोध करता हूँ तुम्हें, मुझसे रहा जाता नहीं !!! ॥ ३० ॥ आचार्य-साधु-मुनि गुरुराज ! तुम संसार के परित्यक्त नाते कर चुके, तुम मोह-माया कामिनी के कक्ष को भी तज चुके, ऐसी दशा में आपको झझाल जब कुछ है नहींकाठिन्य जिसमें हो तुम्हें ऐसा न फिर कुछ है कहीं ॥ ३१ ॥ जगसे प्रयोजन है नहीं, जग से न कोई अर्थ है; परिवार, नाते, गौत्र के सम्बन्ध सब निःअर्थ हैं। निर्धन बने कोटीश चाहे, भूप कोई रंक हो; तुमको किसी से कुछ नहीं-सब ओर से निःशंक हो ॥ ३२ ।। गुरुदेव ! चाहो आप तो सब कुछ अभी भी कर सको; तुममें अभी भी तेज है, तुम तम अभी भी हर सको। सम्राट हो कोई पुरुष, कोई भला अलकेश हो; अवधूत हो तुम, क्या करे वह भूप हो, अमरेश हो ? ॥ ३३ ॥ पर साधुपन जब तक न सञ्चा आपका गुरु होयगा; जो तेज तुममें है, नहीं कुछ भी प्रदीपक होयगा ! गुरु ! आपको भी राग-मत्सर, मोह-माया लग गई ! पड़कर प्रपंचों में तुम्हारी साधुता सब दष गई !! ॥ ३४।।
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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