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________________ *जैन जगती * * भविष्यत् खण्ड हाँ, देखने ऐसा दिवस दृढ़ यत्न होना चाहिए; बलिदान तक के भी लिये कटिबद्ध होना चाहिए। हे नाथ ! दो सद्बुद्धि, जिससे सहज ही यह काम हो; फिर से हमारा जैन- जग अभिराम, शोभाधाम हो ।। १५ ।। 27010 श्रश्र समस्यायें विचारें आज मिलकर हम सभी ; हम दो नहीं, हम शत नहीं, हैं लक्ष तेरह हम अभी । इतना बड़ा समुदाय बोलो क्या नहीं कुछ कर सकें ? डट जायें तो गिरिराज का समतल धरातल कर सकें ॥ १६ ॥ अनुचर सभी हो वीर के, तुम वीर की संतान हो; जिसके पिता, गुरु वीर हों, फिर क्यों न वह बलवान हो ? विभुवीर के अनुयायियो ! लज्जित न पुरखों को करो; नर हो, न आशा को तजो, होकर न पशु तुम यों मरो ॥ १७ ॥ सब के चरण हैं, हाथ हैं, अवशेष कुछ बल-बुद्धि है; कुछ दो चरण आगे बढ़ो, पुरुषार्थ में धन-रिद्धि है ! पूर्वज तुम्हारे वीर थे, तुम भीत, कायर हो गये ! नर के न तुम अब रूप हो, तुम रूप पशु के हो गये !!! ॥ १८ ॥ अवसर पड़े पूर्वज तुम्हारे देखलें तुम्हें कहीं ! मैं सत्य कहता हूँ सखे ! पहिचान वे सकते नहीं ! तन, मन, वचन, व्यवहार में वर्त्तन तुम्हारे आ गया ! मनुष्य के स्थान में दनुजत्व तुममें आ गया !!! ||१६|| १५०
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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