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________________ जैन जगती Becasseed ॐ भविष्यत् खण्ड, 'जिन राज वाङ्मय' नाम की संस्था प्रथम स्थापित करें; दोनों दलों के प्रन्थ जिन-साहित्य में परिणित करें। संमोह, पक्षापक्ष का कोई नहीं किर काम हो; ऊपर किसी भी ग्रन्थ के नहिं साम्प्रदायिक नाम हो ।। १० ।। ये साम्प्रदायिक नाम यों कुछ काल में उड़ जायेंगे; संतान भावी को खटकने ये नहीं कुछ पायँगे। यों एक दिन जाकर कभी क्रम एक विध बन, जायगा%3B सर्वत्र विद्याभ्यास में यह भाव ही लहरायगा।॥ ११ ॥ हैं भिन्न पुस्तक, भिन्न शिक्षक, भिन्न हैं सब श्रेणिये ; होती न क्या पर स्कूल में हैं एक भाषा, शैलियें ? विद्यार्थियों में किस तरह होता परस्पर मेल है ? हो भिन्न भी यदि श्रेणियें, बढ़ता न मन में मैल है ।। १२ ।। यदि साम्प्रदायिक मोह हम इन मंदिरों से तोड़ दें; सब साम्प्रदायिक स्वत्व को हम तीर्थ में भी छोड़ देंफिर देखिये कृतयुग यही कलियुग अचिर बन जायगा; यह साम्प्रदायिक रोग फिर क्षण मात्र में उड़ जायगा ।। १३ ।। यह काम यदि हो जाय तो बस जय-विजय सब होगई ! भ्रातृत्व हममें आगया, जड़ फूट की बस खो गई ! कवि, शेष वर्णन भाग्य का फिर क्या हमारे कर सके ? हम सा सुखी संसार में फिर कौन बोलो रह सकें !॥१४॥ १४६
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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