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________________ जैन जगती ESSAIRecard ॐ भविष्यत् खण्ड, देखो न विधवायें घरों में किस तरह हैं सड़ रहीं ! सब ठौर तुममें धूम कैसी शिशु-प्रणय की बढ़ रही ! खलु ब्रह्मव्रत ही नीम है उत्थान की वैसे अरे ! जब नीम ही दृढ़ है नहीं, मंजिल नहीं कैसे गिरे ? ॥ २० ॥ आत्म-संवेदन हे देव ! अनुचित प्रणय के सहते कुफल अब तक रहे ! ' यो मूल अपनी जाति का हम खोदते अब तक रहे ! हा! इस अमंगल कार्य से हम स्वाह, आधेश बन चुके ! जो रह गये आधे अभी, यम बन्ध उन पर कस चुके !!! ॥ २१ ॥ शिशु पनि का कैसे भला पति साठ के से प्रेम हो ! सोचो जरा तुम ही भला, उस ठौर कैसे क्षेम हो ! व्यभिचार, अनुचित प्रेम का विस्तार फिर हा ! क्यो न हो! हा ! अपहरण, अपघात हा ! हा ! भ्रूण-हत्या क्यों न हो!!!॥२२॥ नारी निरंकुश हो रही, पति भाग्य अपना रो रहे ! विष पत्नि पति को दे रही, पति-देव मूर्छित हो रहे ! आये दिवस ऐसे कथन सुनते ही हैं रहते प्रभो ! जब तक न हो तेरी दया, होगा न कुछ हमसे विभो!!! ॥ २३ ॥ तुममें सुशिक्षा की कमी का भाव जो होता नहींयों आज हमको देखने यह दुर्दिवस मिलता नहीं ! कारण हमारे पतन के सब हैं निहित इस दोष में ! हे आत्मियो ! में कह रहा हूँ सोचकर, नहि रोष में !!! ॥ २४ ॥ ॐ निर्वस,
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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