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________________ ® जैन जगती. * वर्तमान खण्ड *Becadecor व्यभिचार जैसे कर्म भी होते हमारे क्षम्य हैं ! अपराध अबला के सरल होते नहों पर क्षम्य है ! सम्मान नारी जाति के जिस जाति में होते नहीं ! उस जाति के हा! शुभ दिवस आये न, आवेंगे नहीं ॥ २२०॥ विदुषी बनाने के लिये नर यत्न तो करते नहीं; इनके पतन में हाय ! फिर दोषी मनुज कैसे नहीं ! तुम हो सुता के जन्म पर दुर्भाग्य अपना मानते ! तुम पितृ होकर सुत, सुता में भेद कैसे जानते ? ॥ २२१ ॥ व्यापार कौशल-कला व्यापार को अब वे न बातें हाय ! हैं ! मस्तिष्क में हम क्या करें उठती न चालें हाय ! हैं ! हा ! देश निधन हो रहा, हा ! जाति निधन हो रहो! सन्तान पाकर हाय ! हम-सी मात्र-भूमी रो रही! ॥२२२ ।। अब तो न जगडूशाह है, अब तो न जिनदत सेठ है ! मक्कार शाहकार हैं, घर में न वाहर पेठ हैं ! व्यापार जिनका था कभी संसार-भर फैला हुआ ! व्यापार उनका आज हा ! व्यापार गलियों का हुआ !! ॥२२३॥ व्यापार मुक्ता, रत्न का अब स्वप्न की-सी बात है ! चूना-कली में भी नहीं जमती हमारी बात है! बदला जमाना हाय! या बदले हुये हम आप है ! हम पर भयंकर काल की गहरी लगी मुख-छाप है !! ।। २२४ ।। १२६
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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