SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन जगती HOMGORREE ® वतमान खण्ड व्यापार में थे अग्रणी, हा ! आज पीछे भी नहीं ! थे विश्व-पोषक एक दिन, अब पेट की पटती नहीं ! व्यापार कौड़ी का हुआ, कौड़ी बने हम साथ में ! अब तेल मिर्चे रह गई, तकड़ी हमारे हाथ में !! ॥ २२५ ।। था सत्यमय व्यापार, शाहूकार हम थे एक दिन ! अब हा! हमारा रह गया है झूठ में व्यापार-घिन ! हमको हमारे धर्म से भी झूठ प्रियतर हो गया! अब तो कहें क्या, झूठ तो हा! स्नायु तन का हो गया !! ॥२२६।। कर झूठ-सच्चा हाय ! हम निज बन्धुओं को लूटते । उनके रसीले रक्त-धन को जोंक बन कर चूसते ! डाकू, लुटेरे, चोर अब हमको सभी कहने लगे! व्यापार के सम्बन्ध हमसे बन्ध सब करने लगे ॥ २२७ ॥ हम आज भी श्रीमन्त हैं, व्यापार भारी कर सकें; लाकर विदेशों से तथा धन राशि घर को भर सकें। जिस चीज की सर्वत्र हो अति माँग-वह पैदा करें; कल कारखाने खोल दें, पक्का सदा धंधा करें ॥ २२८ ॥ मिलती हमें जब दाल रोटी, कौन यह झंझट करें ! है कौन सी हममें पड़ी ऐसी विपद-खटपट करें ! सस्ता विदेशी बन्धु को हम माल कच्चा बेचते ! फिर एक के वे पाँचसौ लेकर हमें हैं भेजते ! ॥ २२६ ।। १२७
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy