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________________ ® जैन जगतो ॐ वर्तमान खण्ड 8 हा ! आज तुमसे वंश की शोभा न बढ़ती है कहीं ! नर-रत्न तुम अब दे सको वह शक्ति तुम में है नहीं ! बंध्या सभी तुम हो गई-यह बात भी अँचती नहीं; संतान की उत्पत्ति में लजित करो उरगी-सही ।। २१०॥ शीला, सुशीला, सुन्दरा मनकी न अब तुम रह गई ! हा! साध्वियें तो मर गई, तुम कर्कशायें रह गई ! उजड़े भवन को आज तुम प्रासाद कर सकती नहीं! टूटे हुए तुम प्रेम-बंधन जोड़ फिर सकती नहीं !! ॥ २११ ।। लक्ष्मी कहाने योग्य री! अब हो नहीं तुम रह गई ! सम्पन्न करने की तुम्हारी शक्तियें सब गल गई ! विष-फूट के बोना तुम्हारा बीज का अब काम है ! वामा तुम्हें जग कह रहावामा उचित ही नाम है ।। २१२ ॥ निर्बुद्धिपन अरु नारि-हट नारी ! तुम्हारा पेख्य है ! नव वेष भक्तिन-सा तुम्हारा आज नारी ! लेख्य है ! स्त्रीदक्षता, चातुर्य्यता नारी! न तुममें दीखती ! सब भाँति से री ! सच कहूँ-फूहड़ हमें हो दीखती !! ॥२१३।। तुम शील-भूषण भूलकर हा ! नेह भूषण से करो ! प्राणेश अपना छोड़ कर तुम स्नेह दूजे से करो! धिक्कार तुमको आज है, तुम डूब पानी में मरो! है जल रही घर में अनल, तुम क्यों न जल उसमें मरो॥२१४|| १२४
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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