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________________ जैन जगती RECORIAGE . ॐ वर्तमान खण्ड ज्यों अधमरा तलवार का फिर सह न सकता वार है; ठोकर लगे को फिर लगे धक्का-पतन दुर्वार है। जितनी सभाएँ खुल रहों-प्रतिशोध-गह्वर-गट्ट हैं; हम नेत्रहीनों के लिये ये हाय ! गहरे खट्ट हैं । २०५ ।। करना सुधारा है नहीं, इनके दुधारा हाथ में ! करने जिसे हो एक के दो, हैं उसो के साथ में ! प्रख्यात होना है जिसे, अथवा जिसे धन चाहिए: मिल जायँगी सुविधा सभी उसको यहाँ जो चाहिए ॥२०६ ।। मण्डल अब मण्डलों का काम तो भोजन कगना रह गया; कर्तव्य, सेवा, धर्म सब जूने उठाना रह गया । 'सब जाति में हो संगठन' ये ध्येय इनके हैं कहाँ! है ब्रह्मवत जिनमें नहीं, उनसे भला आहित है कहाँ ।। २०७ ।। स्त्रीजाति व उसकी दुर्दशा हे मातृ ! भगिनी ! अम्बिक ! जगदम्बिके ! विश्वेश्वरी ! होती न जानी थी अहो ! यह अवदशा मातेश्वरी ! चेरी कहो क्यों हो गई? तुम अब रमण की चीज हो; इस अवदशा की आप तुम मेरी समझ में बोज हो । २०८ ।। तुम में न वे पति-भाव हैं, तुममें न स्त्री के कर्म हैं ! मूर्खा सदा रहना तुम्हारा हो गया अब धर्म है ! गृह-नायिका, गृह-देवियाँ होने न जैसी आज हो ! कुल-चण्डिनी, कुल-खण्डिनी, कुल-भक्षिका तुम आज हो !! ॥२०॥ १२३
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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