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________________ * जैन जगती Co * वर्तमान खण्ड (1) प्रतिकार संकट का नहीं करना सिखाते हैं कहीं ; जब तक न हो पूरा पतन विश्राम इनको है नहीं ! कवि लेखको ! तुम धन्य हो, तुम कर्म अच्छा कर रहे ! अवगुण सिखा कर फिर हमें गरते को तल—च्युत रहे ॥ २००॥ आदर्श र अरु नारि के जीवन लिखे जाते नहीं ! आख्यायिकोपन्यास के ये अब विषय होते नहीं ! नहिं शौर्य के, नहिं धर्म के हमको पढ़ाते पाठ हैं ! हा ! आधुनिक साहित्य के तो और ही कुछ ठाट हैं !! | २०१३ || शुचि दान, संयम, शील के, तप, ज्ञान, ब्रह्माचार केउल्लेख लेखक क्यों करे अब आज धर्माचार के ! कुल्टा, कुचालीसा मजा इनमें न है इनको कहीं ! आनन्द जो रति रास में वैराग्य में इनको नहीं !! ॥ २०२ ॥ सभायें इतनी सभायें हैं हमारी, और की जितनी नहीं; ज्यों थे कलह बढ़ते रहे, ये त्यों सदा खुलती रहीं ! लड़ना, जहाँ भिड़ना पड़े, अनिवार्य ये होती वहीं; करने सुधारा जाति का खोली न हैं जाती कहीं ! ।। २०३ ।। इतिहास लेकर आप कोई भी सभा का देख लें; उनके किये में जो यदि अरगु मात्र हित भी लेख लें'मैं हार निज जीवन गया;' मुण्डन हमारा हो गया ! हा ! गाँठ का तो धन गया, घर में बखेड़ा हो गया !! ॥ २०४ ॥ १२२
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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