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________________ जैन जगतो. RacercaKESED वर्तमान खण्ड 8 श्राख्यायिकोपन्यास अब साहित्य के मुख-अंश हैं ! निःकृष्ट नाटक, गस, चंपू हाय ! अब सवाश है ! उल्लेख कर रति-रूप का कवि काम-रस बतला रहे ! कामी जनों के काम को हा ! रात-दिन भड़का रहे !!! ॥१६शा हा! आधुनिक साहित्य में नहिं शील-वर्णन पायगा; कुल्टा, कुचाली नारि का आख्यान केवल पायगा ! पढ़ कर जिन्हें हम गिर रह. है गिर रही सुकुमारियाँ। हा ! जल-पवन जैसा मिले, वैसी खिलेंगी क्यारियाँ ।। १६६॥ आता न अक्षर एक है, तुकबंध करना जानते; ग्रामीण रचना का सृजन साहित्य-रचना मानत । निःकृष्ट ऐमे काव्य भी हा! काव्य माने जा रहे ! विद्वान कोई भी नहीं सच्चे हगो में आ रहे ! || १६७ ॥ दौरात्म्य कवि का पात्र है, कथनीय भ्रष्टाचार है ! स्वच्छंदता, दुर्वासना, कुविचार कविता-सार है ! कवि स्वाद अमृत के चखा कर पात्र विष से भर रहे ! कलि काल का आदेश-पालन तो नहीं कवि कर रहे ? ॥१८॥ अब आत्म-बल, सुविचार पर लेखक न लिखते लेख हैं; आदर्शता, दृढ़ धैर्य के होते नहीं उल्लेख हैं। प्राचीन आगम, शास्त्र तो इनके लिये नाचीज हैं; प्रक्षिप्त नभ में पाठको ! होता न पुष्पित बीज है || १EE || १२१
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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