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________________ जैन जगती ॐ वर्तमान खण्ड , चाहे व्यसन के भक्त हैं, पर-नारि में अनुरक्त हैं; उपदेश करते वक्त तो ये हाय ! पूरे भक्त हैं। प्रतिकार, मत्सर, द्वेप की जलती उरों में आग है। वे जाति हित क्या कर सकें जिनके बदन में दाग है !! ।। १७०।। ऐसे अकिंचन जाति का नेतृत्व नेता कर रहे ! हर युक्ति से, हर भाँति से ये कोप अपना भर रहे ! इनके अखाड़े भीम-सैनी भूरि संख्यक लग रहे ! ये तो सहोदर पर चलाने वार अवसर तक रह !!! ।। १७१।। विद्वान इन उपदशकों में एक मिलता है नहीं ये सत्र अधूर, मूर्ख हैं, इनमें न पंडित है कहीं । प्राचार, शिष्टाचार को तो बात है री! तीसरी; है श्वान हरदम भूकता, पर पूछ कब सीधी करी ।। १७२ ।। उपदंश करने का अहो ! लहजा जरा तुम देख लो; गर्दम-गले का फाड़ना, कपि-कूदना तुम लेख लो । भू-कम्प आसन कर रहा, घन गजेना ये कर रहे। जन कर्ण-भेदी तालियों के गड़गड़ाहट कर रहे ।। १७३ ॥ शीले उगलते स्वॉम हैं, मुंह से निकलती आग है; चिंगारियाँ हैं आँख में, ज्वालामुग्वी-सा राग है । तन से पसीना ढल रहा, तन का न इनको भान है; घटे खिसकते जा रहे, जिनका न कुछ भी ध्यान है।। १७४ ॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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