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________________ *जैन जगती * DESCR * वर्तमान खण्ड सम अभिप्राय मेरा यह नहीं - ऐसा न होना चाहिए; व्याख्यानदाता बस प्रथम आदर्श होना चाहिए । अभिव्यक्त करने की कला चाहे भले भरपूर हो; वह क्या करेगा हित किसी का, त्याग जिससे दूर हो ।। १७५ ।। संगीतज्ञ सगीत ज्ञाता आज गायक रंडियों से रह गये ! गायन सभी हा ! ईश के -गायन मदन के बन गये ! सुनकर उन्हें अब भावना विभु-भक्ति की जगती नहीं ! कामाग्नि उठती भड़क है, मन आग हा ! बुझनी नहीं !!! ॥ १७६ ॥ नहीं ! गायक रिझाने ईश को अब गान हैं गाते ये भक्ति भावो को जगाने गान हा ! गाते नहीं ! श्रीमन्त इनके ईश हैं ! उनको रिझाना है इन्हें ! दुर्वासना मनमत्थ की उनकी जगाना है इन्हें !!! ।। १७७ ।। संगीत अब बाजारु है, हा ! शक्ति हो तो क्रय करो ! हे गायको ! तुम देख ग्राहक गान नित सुन्दर करो ! संगीत अब हा ! रह गये सामान पोषण के अहो ! कविता कवीश्वर कर रहे अनुकूल ग्राहक के अहो !! ।। १७८ ।। मृत को जिलाने की अहो ! संगीत में जो शक्ति थी; हा ! गायकों के कण्ठ से जो फूट पड़ती भक्ति थी; वह फेर में पड़ पेट के हा ! गायकों के पच गई ! महफिल सजाने की हमारी चीज अब वह बन गई !!! || १७६ ।। ११७
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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