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________________ वर्तमान खण्ड, जैन जगतींक 000000 आलाप तेरहपंथ का अंतिम दिवस का नाद है; चहुँ ओर क्रन्दन, शोर हैं, अपवाद, निन्दावाद हैं। इन सब कलह की डोर है गुण्डे जनों के हाथ में; ये भूत कैसे लग गये शाश्वत हमारे साथ में ॥ १४०।। रहते हुए इन दम्भियों के प्राण उठ सकते नहीं; पारस्परिक मतभेद के भी राग मर सकते नहीं। भावीस ! तेरहपंथियो! ओ दिग्पटो! श्वेताम्बरो! हे बघुरो ! निज बन्धु को यो मार कर तुम मत मरो ॥१४॥ कुशिता शिक्षा कहें अथवा इसे कुल्टा कहें या चण्डनी; कुलनाशिनी, धनहारिणी, प्रातंत्र्यांदी-मण्डिनी। शिशे ! तुम्हारा नाश हो, भिक्षा मिखाती हो हमें; भिक्षुक बनाकर हाय ! रे ! दर-दर फिराती हो हमें ।। १४२ ।। निज पूर्वजों में हाय ! अब श्रद्धा न होती है हमें; ईशा, नपोलिन पूर्वजों में दीखता नहिं है हमें । ये सर्व कुशिक्षा के कुफल है, हा ! हंत! हम भी मनुज है! शिक्षा, विनय में गिर गए-सब भाँति अब तो दनुज हैं !! ॥१४॥ स्वाध्याय, शाखाभ्यास में मन हा ! कभी लगता नहीं; पाख्यायिकोपन्यास से मन हा ! कभी थकता नहीं। इतिहास यूरोप आदि के हमको रटाये जा रहे संस्कार सब यूरोप के हम में जमाये जा रहे ।। १४४॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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