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________________ जैन जगती BOORA वर्तमान सरह पाश्चात्य मृदंग सीखकर हम तबलची कहला रहे; हर वष बी०ए०, एम० ए० बढ़ते हुए है जा रहे। यदि हो न बी०ए०, एम० ए० रक्खी कहाँ हैं नौकरी! डिगरी बिना हम निर्धनों को है कहाँ पर छोकरी !! ॥ १४५॥ प्राचीन प्राकृत, देव भाषा सीखते हैं हम नहीं; इनक सिखाने की व्यवस्था है न अब सम्यक् कही। फिर देश के प्रति तुम कहो अनुराग कसे जम सक ? दासत्व क कैंस कहो ये भाव उर स उड़ सके ? ।। १४६।। जापान, लण्डन, फ्रांस में शिक्षार्थ हम हैं जा रहे आत हये दो एक लेडी साथ में ले आ रहे । शिक्षा-प्रिया के साथ में लेडी-प्रिया भी मिल गई हम मैन इङ्गलिश बन गये बस मुनसफो जब मिल गई ! ॥१४७॥ जो पा चुके शिक्षा यहाँ, उनको बुभुक्षा मिल गई ! हा ! भाग्य उनक खुल गये, यदि रोटियाँ दो मिल गई! नीचा किये शिर रात दिन वे काम, श्रम करते रहें; फिर भी विचार स्वामियों के झाड़ते जूतें रहे ॥ १४८ ॥ भाराम में बस प्रथम नम्बर एक ऐड्वोकेट हैं; दो बन्धु आपस में लड़ा ये भर रहे पाकट है। ये भी विचारे क्या करें, इसमें न इनके दोष हैं। जैसो इन्हे शिक्षा मिलो, वैसा करें-निर्दोष हैं॥१४॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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