SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन जगती, ® वर्तमान खबर तुम मूर्ति कहते हो जिसे, मैं शाल भी कहदूं उसे; तुम मूर्ति कह सकते उसे मैं शास्त्र कहता हूँ जिसे। है एक कागज का बना, दूजा बना पाषाण का; यह वाकलन भगवान का, वह भान है भगवान का ।। १३५ ।। श्रादर्शता पर शुल्क का फिर प्रश्न है रहता नहीं; रज का कभी वह मूल्य है, जो मूल्य कंचन का नहीं। विश्वेश की यह मूर्ति है, इसका न कोई मूल्य है। जिससे हमारा राग हो, उसके न कोई तुल्य है ॥ १३६ ।। ये शास्त्र, आगम, निगम हैं विद्वान् जन के काम के पर बिम्ब तो अज्ञान के, विद्वान् के सम काम के। साहित्य की ये दृष्टि से दोनों कला के अंश हैं; मन-मैल धोने के लिये ये अम्बुकुल-अवतंश हैं ।। १३०॥ अर्थात् आगम है वही शिवमार्ग का जो ज्ञान दें; शिवमार्ग जो शंकर गये यह बिम्ब उनका भान दें। उत्थान-उन्नति के लिये दोनों अपेक्षित एक-से; हैं भूत भारत वर्ष के इतिहास दोनों एक-से ।। १३८ । समयज्ञ थे पूर्वज हमारे भूत, भावी, अाज के सब के लिये वे रख गये साधन सभी सब साज क। पूजा प्रतिष्ठा मूर्ति की अब क्यों न होनी चाहिए ? मतभेद कह कर शत्रुता यों पालना नहिं चाहिए ॥ १३॥ • प्रसिद्धि १०॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy