SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ® जैन जगती •वर्तमान खण्ड PRESENood इस दृष्टि से विभु-मूर्ति-जीवन-उपकरण ढुंढे गये; प्रक्षाल, दीपक, धूप इसके उपकरण माने गये । ज्यों स्नान, भोजन, वस्त्र से तुम देह की पूजा करो; अनुकूल साधन प्राप्त कर दीर्घायु की आशा करो ।। १३०॥ त्यो मूर्ति भी दीर्घायु हो-ऐसे न किसके भाव हैं ? फिर बिंब करुणासिंधु का-फिर क्यों न पूजा-भाव हैं ? इस भाँति पूजा-भाव दिन-दिन मूर्ति में दृढ़ हो गये; फिर भाव-पूजा-भाव बढ़कर द्रव्य-पूजा हो गये ।। १३१ ।। प्रस्तर-विनिर्मित मूर्तिये जिनराज के शिव बिम्ब हैं; संसार में जिनराज केवल मात्र बस अवलम्ब हैं। उनके भला फिर बिम्ब का संमान क्यों नहिं हो चढ़ा; फिर शिल्प भी इस बिंब की सोपान पर देखो चढ़ा ।। १३२ ।। जिनराज के जब बिंध हैं, जब शिल्प के ये चिह्न हैं; अतऐव हमसे हो नहीं सकते कभी भी भिन्न हैं। रक्षार्थ इनके तब हमें साधन जुटाने फिर पड़े; रखने यथा सम्भव इन्हें मन्दिर बनाने फिर पड़े ॥ १३३ ।। मैं मानता हूँ आज अति ही द्रव्य-पूजा बढ़ गई; हतज्ञान होकर भक्ति-पूजा अन्ध श्रद्धा बन गई। पर अर्थ इसका यह नहीं हम मूर्ति, मन्दिर तोड़ दें; हम उचित श्रद्धा में न क्यों हा! अन्ध श्रद्धा मोड़ दें।। १३४ ॥ १०८
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy