SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * जैन जगती * वर्तमान खबड * सौन्दर्य के प्यासे हगों के खूब लगते ठाट हैं ! ये ईश के आवास अब सौन्दर्य के ही हाट हैं ! हा ! ईश के आवास में होती अनङ्गोपासना ! प्रत्यक्ष अव इन मंदिरों में दीखती दुर्वासना !! ।। ११५ ।। साम्प्रदायिक कलह भरने लगा ! ।। ११६ ॥ हा ! चन्द्रिका के राज्य में कैसी अमा है यह पड़ी ! दिन राज के अधिराज में कैसी निशा की यह घड़ी ! हमको सुधा में हा ! गरल का स्वाद अब आने लगा ! बन्धुत्व मे 'शत्रुत्व का हा ! भाव अब जो चढ़ चुका है शृङ्ग पर फिर निम्नगा भी है वही; कैसे बढ़े फिर शृङ्ग से, जब ठौर आगे है नहीं । ऐसी दशा में लौटना होता न क्या अनिवार्य है ? पर हाय ! हम तो गिर पड़े भिड़कर परस्पर आर्य ! है ।। ११७॥ मतभेद में शत्रुत्व के यदि भाव जो भरने लगें; भरने वहाँ विषधार के फिर देखलो भरने लगें । अन्न, जल, पवमान तब विषभूत होंगे देख लो; उद्भिज, मनुज, खग, कोट भी विषकुम्भ होंगे लेख लो ||११८५ || हा ! आज ऐसा ही हमारी जाति का भी हाल है ! प्रत्येक बच्चा, प्रौढ़ इसका हाय ! तक्षक ब्याल है ! उत्थान की अब आश हमको छोड़ देनी चाहिए; विकार ! हमको श्वान की दुर्भौत मरनी चाहिए ॥ ११६ ॥ १०५
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy