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________________ जैन जगती ® वर्तमान खण्ड तीर्थ-स्थान ये तीर्थ मंगल-धाम हैं, ये मोक्ष की सोपान हैं; उन पूर्वजों की तप-तपस्या, मुक्ति के ये थान हैं। अपवर्ग साधन के जहाँ होते रहे नित काम हैं ! अब देख लो होते वहाँ रसचार के सब काम हैं !! ॥ ११० ॥ रस-भोग-भोजन के यहाँ अब ठाट रहते हैं सदा ! गुण्डे दुराचारी जनों के जुत्थ फिरते हैं सदा ! मेलादि जैसे पर्व पर होती बसंती मौज है ! सर्वत्र मधुबन बीथियों में प्रेयसी-प्रिय-खोज है !! ।। १११ ।। प्रति वर्ष लाखों का वृथा धन खर्च इनमें हो रहा ! हा! देव-धन से काम यों लाखों जनों का हो रहा! अतिव्यय, कलह, वैपम्य के अवतीर्थ मेले मूल हैं! इसमें हमारी भूल है इनकी न कुछ भी भूल है ।। ११२ ।। जब देखते हैं नेत्र इनको बंद दो पड़ती अहा ! श्रय ये तपोवन हैं नहीं, जगता मनोभव ही यहाँ ! अब दर्श भी बिन शुल्क के भगवान के संभव नहीं ! अब ईश के दरबार में भी घूस बिन अवसर नहीं !! ॥ ११३ ।। ___ मंदिर और पुजारी मंदिर न अब इनको कहो, नहिं ईश के आवास हैं ! पण्डे-पुजारी ईश हैं, दर्शक विचारे दास हैं ! अड़ना, अकड़ना, डॉटना इनक सदा के काम है ! बस माल खाना, मस्त रहना, लोटना ही काम हैं !! ॥ १४ ॥ १०४
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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