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________________ जैन जगती वर्तमान खण्ड ये तो दिगम्बर हैं नहीं, नंगे लड़ाकू दीखते ! ये श्वेतपटधारी नहीं, ये भूत मुझको दीखते! इनको सहोदर हाय ! हम सोचो भला कैसे कहें ? अखिलेश के ही सामने पद-त्राण जब इनमें बहें !! ॥ १२० ॥ होकर पुजारी एक के ये हाय ! डण्डों से लड़े ! फिर क्यों न इनके देव पर हा! दाव दूजों के पड़े! धिकार ! कैसे जैन हैं ! क्या जैन के ये काम हैं ! गतराग जो गतद्वेष जो हा ! जैन उसका नाम है ।। १२१ ।। हर एक अपने बन्धु को ये शत्रु कट्टर मानने ! इनसे भले तो श्वान हैं जो अन्त मिलना जानते ! ये एक दूजे को अहो निर्मूल करना चाहते ! ये मार कर अपना सहोदर बन्धु रहना चाहते !! ।। १२२ ॥ लड़ते हुए इस भाँति से बरबाद दोनों हो चुके ! कोटी सहोदर खो चुके, दोनों समर में से चुके ! निर्धन, पतित अब दीन ये देखो विचारे हो रहे ! इनके घरों को देख लो बैठक मृतक के हो रहे ।। ।। १२३ ॥ ये व्यूहरचना में नहीं निष्णात हमको दीखते; अभिमत हमारा मानलें ऐसे नहीं ये दीखते । इनके दलों में फूट है, ये फूट पहिले फूंक दें; फिर फूंक कर दल-फूट को रण-शंख पीछे फूंक दें ॥१२४॥ १०६
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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