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________________ जैन जगती * वर्तमान खण्ड * लेख्य हैं ! काम हैं ! काम है !! ।। १०५ ।। लड़ने लगो जब तुम परस्पर वह छटा तो पेख्य है ! को दण्ड हैं डण्डे तुम्हारे, पात्र शर सम कर- पाद भी उस काल में देते गदा का मुँह-यंत्र की तो क्या कहूँ-वह तो कला का संयमव्रता इन नारियों का यह पतन ! हा ! हंत ! हा ! कह कर चली थीं मोक्ष की जो, तपन में भी हैं न हा !! श्रीसंघ को इस भाँति से विभु ! भग्न करना था नहीं ! नम्रत्व का जैनत्व में से भाव हरना था नहीं !! || १०६ ॥ श्रीपूज्य-यति श्रीपूज्य, यति जिनका अधिक सम्राट से भी मान था; किस भाँति अकबर ने किया यति हीर का सम्मान था । पर आज ऐसे गिर गये ये पूजना कुछ है नहीं ! अब दोष अ -आकर हैं सभी, वह त्याग-संयम है नहीं !! ॥ १०७ ॥ अनपढ़ तथा ये मूर्ख हैं, अरु घोर विषयामक्त हैं ! भंगी, भङ्ग्रेड़ी, कामरत नर आज इनके भक्त हैं ! अब यंत्र, मोहन-मंत्र में श्रीपूश्य-पद हा ! रह गया ! यह यंत्र नारी जगत में बन कर विहंगम उड़ गया !! || १०८ ॥ कुलगुरु ये आज कुलगुरु सब हमारे दीन, भिक्षुक हो गये ! हो क्यों न भिक्षुक, दीन विद्याहत जब ये हो गये ! ये पड़ गये सब लोभ में, व्यसनी, रसीले हो गये ! आदर्श कुलगुरु थे कभी, अब भृत्य देखो हो गये !! ।। १०६ ॥ १०३
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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