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________________ ● वर्तमान खण्ड * * जैन जगती* साध्वी हे साध्वियो ! वंदन तुम्हें यह भक्त दौलत कर रहा; पर देख कर जीवन तुम्हारा हाय ! मन में कुढ़ रहा । आत्माभिसाधन के लिये संयम लिया था आपने; संयम-नियम को भूल कर कर क्या दिया यह आपने !! ।। १०० ।। तुममे न गृहणी में मुझे अन्तर तनिक भी दीखता ! वह मोह-माया जाल मुझको आप में भी देखता । तुम छोड़कर नाते सभी - नाते सभी विध पालतों; सम्यक्त्व आर्य ! भूल कर संमोह तुम हो पालती ! ॥ १०१ ॥ तुम पति विहीना नारियों की दृढ़ चमू हैं बन गई; अथवा च विधुरा नारियों को अलग परिषद बन गई । परिषद चमू तो देश की रक्षार्थ श्रती काम है; क्षन्तव्य, उल्टा कह गया ऐसा न इनका काम है !! ॥ १०२ ॥ तुममें न कोई पंडिता, विदुषी मुझे हैं दीखती ! जैसी चली गृहवास से वैसी अभी हो दीखतो ! आर्या कहाती आप हो, आर्यत्व तुममें अब कहाँ ! तुममें, अनाथा भिक्षुकी में कुछ नहीं अन्तर यहाँ !! ॥ १०३ ॥ धन, मान, परिजन, गेह, पति परित्यक्त तुम हो कर चुकीं; उर में लगन पर है वही - स्वाहित स्वकर से कर चुकीं । अवकाश पर भी धर्म की चर्चा तुम्हें भाती नहीं ! घरवास के अतिरिक्त बातें हा! तुम्हे भाती नहीं !! ॥ १०४ ॥ १०२
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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